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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
शौचधर्म है। एक बात यह भी है कि राग आदिका त्याग कर चुकनेपर मुनिके भावविशुद्धियोंसे तन्मय हो रहा ब्रम्हचर्य धर्म भी अतीव उत्कृष्ट विशुद्ध हो जाता है । क्रोध भी परिग्रहको निमित्त पाकर उपजता है । उस परिग्रहका अभाव हो जानेपर उत्तमक्षमा स्वयं व्यवस्थित हो जाती है। यों अचेल मुनिके ही उत्तमक्षमा पाई गई । मार्दव धर्म भी उस आचेलक्यके होनेपर ही निकटमें आ बैठता है । क्योंकि " मैं सुन्दर हूं, मैं धनिक हूं" इत्यादिक गर्वका वस्त्ररहितपने करके त्याग हो चुकता है। स्पष्ट रूपसे आत्मीय सहज भावको चारों ओर दिखला रहे अपरिग्रह मुनिके मायाचार रहितपन स्वरूप आर्जवता धर्म होता है । क्योंकि मायाके मूल कारण हो रहे परिग्रहका मुनिन त्याग कर दिया है। परिग्रही जीव इन्द्रियोंके शब्द, रूप आदि विषयोंमें आसक्त हो जाता है । जिस परिग्रहसे विरागभावको प्राप्त हो चुका मुनि चीर आदि परिग्रहके त्यागमें तत्पर हो रहा सन्ता उस परिग्रहसे विमुक्ति हो जानेके कारण शीत, उष्ण, डांस, मच्छर आदिके परिश्रमको सह लेता है। निष्परिग्रहपनको प्राप्त हो रहे मुनि करके परीषहें तथा देव, असुरों करके उदीरणा किये गये उपसर्ग सब सह लिये जाते हैं। वस्त्र ओढे हुये को डांस, मच्छर आदि परीषहे क्या सतावेंगी ? परिग्रहरहित मुनिकेही घोर तपश्चरणका अनुष्ठान किया जाता है। इस प्रकार मुनिके वस्त्ररहितपनका उपदेश कर देनेसे संक्षेप करके दशों प्रकारके धर्मोका निरूपण कर दिया गया हो जाता है । इसके आगे विजयोदया टीकामें अन्य भी अचेलत्वका समर्थन यों किया है कि--
अथवा न्यथा प्रक्रम्यते अचेलता प्रशंसा । संयमशुद्धिरेको गुणः स्वेदरजोमलावलिप्ते चेले तद्योनिका तदाश्रयाश्च त्रसाः सूक्ष्माः स्थूलाश्च जीवा उत्पद्यन्ते, ते बाध्यन्ते चेलग्राहिणा । संसक्तं वस्त्रं तावत्स्थापयतीति चेत्तहि हिंसा स्यात् । विवेचने चम्रियन्ते संसक्ताः । चेलवतः स्थाने, शयने, निषद्यायां, पाटने, छेदने, बंधने, वेष्टने, प्रक्षालने, संघट्टने, आतपप्रक्षेपणे च जीवानां वा बाधेति महानसंयमः । अचेलस्यैवंविधासंयमाभावात् संयमविशुद्धिः। इन्द्रियविजयोद्वितीयः । सर्पाकुले वने विद्यामन्नादिरहितो यथा पुमान दृढप्रयत्नो भवति । एवमिन्द्रियनियमने अचेलोपि प्रयतते । अन्यथा शरीरविकारो लज्जनीयो भवेदिति । कषायाभावश्च गणोऽचेलतायाः स्तेनभयाद्गोमयादिरसेन लेपं कुर्वन्निगूहयित्वा कथंचिन्मायां करोति। उन्मार्गेण वा स्तेनवञ्चनां कर्तुयायात् । गुल्मवल्याद्यन्तहितो वा स्यात् चेलादिममास्तीति मानं चोद्वहते । बलादपहरणात् स्तेनेन सह कलहं