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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
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कि यह सचेलसंयमीपना सर्वथा मिथ्या है । क्योंकि साक्षात् मोक्षका कारण तो निर्ग्रन्थलिंग ही है । आचेलक्य संयमसेही मोक्ष होती है। ऐसा आगम ग्रन्थोंका निर्दोष वचन है । अपवाद रूपसे वस्त्र रखने का ग्रन्थका व्याख्यान तो उपकरण वकुश नामक मुनिकी अपेक्षासे करना चाहिये । भावार्थ--उच्चमार्ग तो वस्त्ररहितपना ही है। हां, कोई उपकरण वकुश कम्बल आदिमें अत्यासक्ति रखता हो और समाधिमरणमें भी उसका उपयोग नहीं लगता हो तो ऐसी दशामें वैष्णवसम्प्रदाय अनुसार काशीकरों तया जीवित गंगाप्रवाह, गिरिपात, अग्निपात आदिके समान हम जैनोंके यहां बलात्कारसे मार देना अभीष्ट नहीं किया गया है। उक्त क्रियाओंको करनेवाले और करानेवाले दोनोंही आत्मघाती हैं । आत्मघातीको कथमपि मोक्षमार्गमे लगा हुआ नहीं माना जा सकता है । यों ऐसे उपकरणोंमें आसक्त हो रहे वराक जीवको दया कर कम्वल दे दिया जाय । धर्म्यध्यानके विना व्यर्थ मार देना या कष्ट सहाते रहाना, कृपालु महर्षियोंकी शासनपद्धति नहीं हैं। यहां मुझ भाषाकारको मात्र यही कहना है कि--वस्त्रको ग्रहण कराना मुनियोंका धर्म नहीं कहा जा सकता है । इसी प्रकार वस्त्र ग्रहण कर रहा लोलुप रंक जीव भी मुनि बना नहीं रक्षित रह सकता है। इस दिगंबरीय तत्त्वका पूर्ण लक्ष्य रखा जाय । उद्भट विद्वान् “ श्री शिवकोटि आचार्य " की बनाई हुई मूलाराधना (भगवती आराधना) की चार सौ इक्कीसवीं गाथा यों है कि “ आचेलक्कुद्देसिय सेज्जाहररायपिंड किरियम्मे, जेट्ठपडिक्कमणे वियमासं पज्जो सवण कप्पो ॥ ४२१ ॥ इस गाथा अनुसार दश प्रकारके स्थितिकल्पोंमे पहिला आचेलक्य माना है। श्री अपराजित सूरि की बनाई हुई ' विजयोदया" टीकामें आचेलक्यका विशद व्याख्यान इस प्रकार किया है कि--" आचेलक्कुद्देसिय" चेलग्रहणं परिग्रहोपलक्षणं, तेन सकलपरिग्रहत्याग आचेलक्यमित्युच्यते । दशविधे धर्मे त्यागो नाम धर्मः । त्यागश्च सर्वसंगविरतिरचेलतापि सैव । तेनाचेलो पतिस्त्यागाख्य धर्म प्रवृत्तो भवति । अकिञ्चनाख्येऽपि धर्म समुद्यतो भवति निष्परिग्रहः । परिग्रहार्था ह्यारम्भप्रवृत्तिनिष्परिग्रहस्या सत्यारम्भे कुतोऽसंयमः । तथा सत्येऽपि धर्मे समवस्थितो भवति । परं परिग्रहनिमित्तं व्यलीकं वदति। असति बाह्ये क्षेत्रादिके अभ्यन्तरे च रागादिके न निमित्तमस्त्यनृताभिधानस्य ततो ब्रुवन्नेवमचेल: सत्यमेव ब्रवीति ! लाघवं च अचेलस्य भवति । अदत्तविरतिरपि संपूर्णा भवति । परिग्रहाभिलाषे सति अदत्तादाने प्रवर्तते नान्यथेति । अपि च रागादिके त्यक्ते भावविशुद्धिमयं ब्रम्हचर्य