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नवमोध्यायः
कतिपय हैं । वाचक ओर वाच्य प्रमेय दोनोंही हमको जंचे नहीं हैं । स्याद्वादनीति अनुसार कोई अपेक्षावाद भी साधुके कम्वल रखनेका समर्थक नहीं प्रतीत होता है । हां, मुनित्व हटा दिया जाय तो मिथ्यादृष्टि कम्बलको रखे, कुछ भी खावे, चुरावे, कोई भी क्रिया करे, इस पर हमें कुछ कहना नहीं है । असंयत सम्यग्दृष्टि हो कर भी भले ही कम्बल रक्खे, खाद्य रक्खे, कोई आपत्ति नहीं है, हां साधुके कम्बलका वेष स्वीकार किया जायगा तो साधु या उसका समर्थक अवश्य श्रद्धानसे च्युत हो रहा पक्का मिथ्यादृष्टि है । उक्त शुद्ध, अशुद्ध कारिकाओंका केवल अर्थ लिख दिया है । यह विद्यानंद स्वामीकी कृति है, हमें तो इसमें भी सन्देह है । अलम् कृतधियः सुविचार्य प्रवर्तिष्यन्ते ।
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तथैव व्याख्यानमाराधना भगवतीप्रोक्ताभिप्रायेणापवादरूपं ज्ञातव्यं । उत्सर्गापवादयोरपवादो विधिर्वलीयानित्युपसर्गेण यथोक्तमाचेलवयं च प्रोक्तमास्ते तावदार्यासमर्थदोषवच्छरीराद्यपेक्षयाऽपवादव्याख्याने न दोषः । अमुमेवाधारं गृहीत्वा जैनाभासः केचित्सचेलत्वं मुनीनां ख्यापयन्ति तन्मिथ्या । साक्षान्मोक्षकारणं निर्ग्रन्थ लिंग मिति वचनात् । अपवादव्याख्यानमुपकरण कुशीलापेक्षया कर्तव्यम् ।
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आराधना भगवती ग्रंथकी टीका में कहे गये अभिप्राय करके तिस ही प्रकार मुनिके कम्बल आदि रखनेका व्याख्यान करना अपवाद रूप समझना चाहिये उत्सर्गविधि और अपवाद मार्ग में अपवादकी विधि बलवान् होती है । इस कारण उत्सर्गरूपसे शास्त्रोंमें कहा गया ही वस्त्ररहितपना आचेलक्य संयम तो बहुत बढिया आचरण कहा गया है । हां, जब तक आर्य यानी मुनि या ऐलक असमर्थ है । या बात आदि दोषोंवाले शरीरसे ग्रस्त है । शीत, रोगको सहन नहीं कर सकता है । इत्यादिकी अपेक्षा करके अपवादरूपसे व्याख्यान करने में कोई दोष नहीं है । अर्थात् संपूर्ण मुनियोंके लिये राजमार्ग तो उत्सर्गरूपेण वस्त्ररहितपन ही है । हां, किसी आपत्तिकालमें वस्त्र रखनेकी अपवादविधी भी लागू हो जाती है । उस भगवती आराधनामें कहे गये वस्त्र रखने के आधारको ही ग्रहण कर कोई कोई जैनसारिखे दीख रहे श्वेतांबर जैनाभास पंडित मुनियोंके वस्त्ररहितपनको प्रसिद्ध रूपसे बखान रहे हैं। तभी तो वे ऊनी, सूती, वस्त्रोंका रखना, दण्ड रखना, पात्र रखना आदि रूपसे परिग्रही बने हुये हैं । ग्रन्थकार कहते हैं