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नवमोध्यायः
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केचिच्छरीरमुत्पन्नदोषा लज्जित कारणात् ।
तथा कुर्वन्ति व्याख्यानं भगवदाराधनोदितं ॥ १२ ॥ प्रोक्तामहर्षिभिस्तेयत्सर्वेषामुपकारिणः ।
स्वाध्याय करनेवाले भद्र प्रकृति श्रोताओंके प्रति मुझ भाषा टीकाकारका यह प्रज्ञापन है कि इस " संयमश्रुतप्रतिसेवना" इत्यादि सूत्रका विवरण कुछ अशुद्ध प्रतीत हो रहा है । जो पुस्तक उपलब्ध हो रहा है उसी परसे कुछ स्वमनीषा अनुसार न्यून, अधिक कर देशभाषा कर दी गई है। विशेषज्ञ विद्वान् आम्नाय अनुसार शुद्ध कर लेवें, दिगंबर संप्रदाय अनुसार किसी भी निर्ग्रन्थ साधुके वस्त्रका रखना नहीं संभवता है । वस्त्र तो बडा परिग्रह है। मुनि एक डोरा या तृण भी अपने पास नहीं रख सकते हैं । हां, श्वेतांबर या वैष्णव सम्प्रदायवालोंने वस्त्र का रखना साधुके अभीष्ट किया है। किसी किसी ग्रन्थमें बलवत्तर राजा या राष्ट्र अथवा एकान्त धर्माग्रही गुरुओंका अनुचित प्रभाव डालनेकी दशा हो जानेपर यहां वहां का अनार्ष क्षेपक विषय लिखा पाया जाता है। श्री विद्यानन्द स्वामी महान् दिगंबर आचार्य थे। ये श्वेतांबर मतानुसार साधुके कम्बल, कोशा आदिका ग्रहण करना पुष्ट नहीं कर सकते हैं । तथा भगवती आराधनाके कर्ता शिवकोटि दिगम्बर मुनीन्द्र भी साधुके वस्त्र रखनेकी पुष्टी नहीं करते हैं। आचेलक्य यानी वस्त्ररहितपनको सर्वत्र दिगंबर आर्षशास्त्रोंमे पोषा गया है। हां, भगवती आराधनासार ग्रंथकी संस्कृत टीकाको बनानेवाले यदि श्वेतांबर हैं तो वे अपने संप्रदायको पोषनेके लिये कुछ भी लिख देवें वह अक्षुण्ण दिगंबर सिद्धांत नहीं माना जा सकता है । असली रत्नोंमें नकली काच छिपाये छिप नहीं सकते हैं आस्तां । यहां श्लोकवात्तिक शास्त्रके उपलब्ध पुस्तकमें जो लिखा हुआ है। उसका अर्थ इस प्रकार है कि--शीतकाल, शीतव्याधि आदिके अवसरपर कम्बल नाम के वस्त्रको अथवा कोशा' रेशमके, बने हुये कौशेय या सनिया आदिक पटोंको यहां ग्रहण कर लेते हैं । घरमे ग्रहण नहीं करते हैं। न वस्त्रको परवारते हैं। और सीवते भी नहीं हैं, तथा अन्य कोई सुखाने आदि व्यापारोंका प्रयत्न नहीं करते हैं। गाढ शीतवेदनासे अतिरिक्त अन्य कालोंमें ग्रहण नहीं करते हैं । मुनिके वस्त्रोंको लानेवाले ला देते हैं । और ले जानेवाले ले जाते हैं। कोई कोई यहां यह कह रहे हैं कि शरीरमें पीडा, गुप्त अवयवोंमें दोष आदि उपज