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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
अस्यैषा प्रतिसेवना यः कषायकशीलो निर्ग्रन्थाः स्नातकश्च तेषां विराधना काचिन्न वर्तते अप्रतिसेवनाः । सर्वेषां तीर्थकराणां तीर्थेषु पंच प्रकारा अपि निम्रन्थाः भवन्ति । लिगं द्विविधं द्रव्यभावभेदात्तत्र पंचप्रकारा अपि निर्ग्रन्था द्रव्यपुल्लिगिनो भवन्ति भावलिगं तु भाज्यं व्याख्येयमित्यपि न कि केचित्समास्तद्वदसमर्थाः महर्षयः । - इस प्रतिसेवना कुशीलके यही प्रतिसेवना है कि कदाचित् उत्तर गुणोंकी विराधना हो जाती है । दूसरा जो कषायकुशील है, तथा निर्ग्रन्थ और स्नातक मुनिवर हैं । उनके कोई भी विराधना नहीं वर्त रही है । इस कारण वे प्रतिसेवनारहित हैं । पुलाक आदिके संयम, श्रुत प्रतिसेवनाका विचार कर दिया है। इनके तीर्थ और लिंगकी मीमांसा इस प्रकार है कि--संपूर्णही तीर्थंकरोंके तीर्थों में पांचों भी प्रकारके निग्रंथ मुनि होते हैं । अर्थात् वृषभ आदि तीर्थंकरोंके या भूत भविष्य कालीन तीर्थकरोंके समयमें अथवा उनके मध्यवर्ती वारोंमें पुलाक आदि पांचों निर्ग्रथोंका होना संभवता है । द्रव्यलिग और भावलिगके भेदसे लिंग दो प्रकार है। उन लिंगोंकी अपेक्षा करनेपर पांचों भी प्रकारके निर्ग्रन्थ मुनि द्रव्यरूपसे पुरुषलिगी होते हैं। द्रव्य स्त्री और द्रव्य नपुंसकोंके पांचवे तक गुणस्थानही होते हैं । छठा, सातवां, गुणस्थान द्रव्य पुरुषोंके ही संभव है। हां, भावलिंगकी अपेक्षा तो भजनीय है। नौवे गुणस्थानतक वेदका उदय है । अत. नौवे गुणस्थानतकके मुनियोंमें भाववेदकी अपेक्षा किसीके पुंवेदका उदय है, अन्यके स्त्रीवेदनोकषायका उदय है। क्वचित् नपुंसक वेद भी उदयापन्न है। यहां यह भी व्याख्या कर लेने योग्य है कि--पुलाक आदि कोई भी मुनिसमान नहीं है । कुछ न कुछ सभीमें परस्पर अन्तर है । . उसीके समान सभी महर्षि समर्थ भी नहीं हैं। कोई कोई परीषह, उपसर्ग, सहने में पूर्ण समर्थ हैं । अन्य उपसर्ग झेलने में असमर्थ हो रहे हैं।
शीतकालादिके वाच्यं शब्दं तत्कम्बलाभिधं । कौशेयादिकमित्यत्र गृहन्ति न च वेश्मनि ॥ १० ॥ क्षालयन्ति न सीव्यन्ति न प्रयत्नादिकं तथा । परकालेन कुर्वन्ति हरांत परिहारकाः ॥ ११ ॥