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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
रुपया, सोना, रखते हैं। उनके बाह्य परिग्रहके साथ साथ कषाय, मिथ्यात्व, हास्य आदि अन्तरंग परिग्रह भी डट रहा है । वस्तुतः दिगंबर मुनिही निर्ग्रन्थ हैं।
ये वस्त्रादिग्रहेप्याहुर्निर्ग्रन्थत्वं यथोदितं । मूर्छानुभूतितस्तेषां स्त्र्याद्यादानेपि किं न तत् ॥ ३॥
जो श्वेतांबर या वैष्णव सम्प्रदायवाले यों कह देते हैं कि वस्त्र, लठिया, पात्र, मठ आदि परिग्रहके होनेपर भी अपने शास्त्र कथित मन्तव्य अनुसार निर्ग्रन्थपना बखाना जा सकता है, क्योंकि आदिकोंमें उन साधुओंकी मूर्छाकी प्रकटता नहीं है । मूर्छा होती तो परिग्रह होता । अब आचार्य कहते हैं कि तब तो उन श्वेतांबर या वैष्णवोंके यहां स्त्री, रियासत, रत्नभूषण, नृत्य युद्धसामग्री आदिका ग्रहण कर लेनेपर भी वह निर्ग्रन्थपना क्यों नहीं मान लिया जाय । वे कह सकते हैं कि मूर्छाकी उद्भूति नहीं है । किसी कारणवश हम स्त्रीको या सेनाको रखते हैं इत्यादि। तत्त्व यह है कि यदि दांत नुकानेके लिये तृण या स्वल्प तन्तु भी रक्खा जायगा तभी बहिरंग परिग्रहके साथही अन्तरंग परिग्रहकी तीव्रता हो जायगी। ग्रन्थ माने किसी भी परिग्रहका है। गांठ लगाना या सिला हुआ कपडा पहिनना ये ग्रन्थके झूठे कपोलकल्पित लक्षण हैं।
विषयग्रहणं कार्यं मूर्छा स्यात्तस्य कारणं । न च कारणविध्वंसे जातु कार्यस्य संभवः ॥ ४ ॥ विषयः कारणं मूर्छा तत्कार्यमिति यो वदेत् । तस्य मूर्छादयोऽसत्त्वे विषयस्य न सिद्धयति ॥५॥ तस्मान्मोहोदयान्मूर्छा स्वार्थे तस्य ग्रहस्ततः । स यस्यास्ति स्वयं तस्य न नैन्थ्यं कदाचन ॥ ६ ॥
अंतरंग में मोह या मूर्छाके होनेपर ही बाह्यमें विषयोंका ग्रहण किया जाता है। वस्त्र, रुपया गाय, भोजन, पात्र आदि विषयोंका ग्रहण करना कार्य है। और मूर्छा उसका अन्तरंग कारण है । कारणका विध्वन्स हो जानेपर कदाचित् भी कार्यकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है । अतः जिस साध्वाभासने विषयोंका ग्रहण कर लिया है। वह उभय ग्रन्थसे सहित हो रहा पूरा सग्रंथ है । जो मोही जीव यों कहेगा कि विषय तो