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नवमोध्यायः
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आदि कषायों का तो उदय नहीं है किन्तु मात्र संज्वलन कषायका उदय है । उस कषायो - दयके योगसे ये मुनि कषाय कुशील माने जाते हैं । ये दोदो ही मुनि मूलगुणों और उत्तरगुणोंको धारते हुये भी प्रतिसेवना और कषायकी प्रधानतासे प्रतिसेवनाकुशील और कषायकुशील कहे जाते हैं । पानीमें डण्डेकी लकीर खींच देनेसे जैसे व्यक्त नहीं होती है उसी प्रकार कर्मोंका उदय जिनका व्यक्त नहीं है । मोहनीय कर्मोंका जो भले प्रकार नाश कर चुके हैं । ज्ञानावरण आदि कर्मोंका उदय भी जिनके अतीव मन्द है । अन्तर्मुहूर्त कालके पश्चात् ही जो केवलज्ञान और केवलदर्शनको प्राप्त करनेवाले हैं । वे निर्ग्रन्थ नामके साधु हैं । जिन मुनीन्द्रोंने चार घाति कर्मोंकी सैंतालीस और अघाति कर्मोंकी नरकगति आदि सोलह यों त्रेसठ प्रकृतियोंका प्रक्षय कर दिया है । ऐसे सयोगकेवली और अयोग केवली भगवान् स्नातक जातिके मुनीश्वर हैं । " स्नात वेदसमाप्त वेद यानी ज्ञान की पूर्णतया समाप्ति हो जाने अर्थ में स्नातधातु प्रवर्तती है । यों स्नातधातुसे स्व ही अर्थको कह रहे स्वार्थमें क प्रत्यय कर देनेपर स्नातक शव व्याकरण प्रक्रियासे साधु निष्पन्न हो जाता है । यों, जैन सिद्धांत अनुसार ये पाँचों मुनिराज निर्ग्रथ हैं। यहां कोई तार्किक प्रश्न उठाता है कि किस कारणसे या युक्ति से भिन्न भिन्न हो रहे पांचों भी निर्ग्रन्थ मान लिये गये सिद्ध हो जाते हैं ? बताओ । ऐसा तर्क उपस्थित हो जानेपर ग्रन्थकार समाधानार्थ इन अग्रिम वार्त्तिकोंको कह रहे हैं ।
पुलाकाद्या मताः पंच निर्ग्रन्था व्यवहारतः । निश्चयाच्चापि नैर्ग्रन्थ्य सामान्यस्याविरोधः ॥ १ ॥ वस्त्रादिग्रंथसम्पन्नास्ततोन्ये नेति गम्यते ।
बाह्यग्रंथस्य सद्भावे ह्यंतर्ग्रथो न नश्यति ॥ २ ॥
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सामान्यरूपसे निर्ग्रन्थपनेका कोई विरोध नहीं होनेसे पुंलाक आदि पांचों
पुत्र,
मुनीन्द्र व्यवहारनयसे और निश्चयनयसे भी निर्ग्रन्थ माने गये हैं । तिस कारण उन पुलाक आदि पांचोंसे भिन्न हो रहे जो वस्त्र, भूषण, घोडे, हाथी, जागीर, स्त्री, धन आदि परिग्रहोंसे सम्पत्तिशाली बन रहे साधु हैं, वे निर्ग्रन्थ कथमपि नहीं हैं । यह बात समझ ली जाती है। कारण कि वस्त्र, वाहन आदि बाह्य परिग्रहका सद्भाव होनेपर अन्तरंग कषाय परिग्रह नहीं नष्ट हो पाता है । यों जो साधु वस्त्र रखते है या