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नवमोध्यायः
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यहां कोई आक्षेप करता है कि यहां ध्यानका प्रस्ताव चला आ रहा है । अगले सूत्र में ध्यान या तपको करनेवाले निर्ग्रन्थोंका निरूपण किया जायगा । किन्तु यह प्रस्ताव प्राप्त नहीं हो रहा असंख्यातगुणी निर्जराका प्रतिपादक सूत्र किसलिये कहा जा रहा है ? बताओ। ऐसा तर्क उपस्थित हो जानेपर ग्रन्थकार समाधान करते हैं कि " तपसा निर्जरा च " इस सूत्र से तपका निरूपण करना प्रकरण प्राप्त चला आ रहा है । बाह्यतप और ध्यानपर्यंत अभ्यन्तर तपोंका व्याख्यान कर चुकनेपर यह बात विना कहे ही प्रसंगसंगतिसे प्राप्त हो जाती है कि चौथे गुणस्थानसे प्रारंभ कर चौदहवें गुणस्थानतकके सभी जीव सम्यग्दृष्टी हैं । तथा यथासंभव बाह्यरूप और अभ्यन्तररूप तपश्चरणसे भी उनमें यथायोग्य समानता पायी जाती है । ऐसी दशा होनेपर उन दशोंपदोंमें कर्मोंकी निर्जरा भी समान कोटिकी होती होगी किन्तु प्रसंग प्राप्त होनेपर अर्थापन हुआ ऐसा सम्भाव्यसिद्धांत सूत्रकारको अभीष्ट नहीं है । अतः उस रहस्यकी विशेष प्रतिपत्ति करानेका प्रयोजन रख सूत्रकारका यह " सम्यग्दृष्टिश्रावकः " इत्यादि सूत्र कथन करनेके लिये समुचितही प्रस्ताव प्राप्त समाधान वचन है । अर्थात् सम्यग्दर्शन या तपस्या होतें हुये भी आत्मविशुद्धिकी वृद्धि होते रहनेसे कर्मनिर्जरा असंख्यातगुणी बढती चली जाती है । यहां कोई पूंछता है कि सम्यग्दृष्टी, श्रावक, आदिक उक्त जीव फिर किस कारण से असंख्यात गुणी निर्जरावाले उत्तरोत्तर क्रमसे हो जाते हैं ? बताओ, ऐसी जिज्ञासा उत्थित हो जानेपर ग्रन्थकार इस अग्रिम वार्तिकको परिभाषित करते हैं ।
सम्यग्दृष्ट्यादयः सन्त्यसंख्येयगुणनिर्जराः । क्रमादत्र तथा शुद्धेरसंख्येयगुणत्वतः ॥ १ ॥
यहाँ प्रकरण में सम्यग्दृष्टि, श्रावक, आदि ( पक्ष ) क्रमक्रमसे असंख्यात गुणित निर्जरावाले हैं ( साध्य ) तिस प्रकार आत्मशुद्धिको असंख्यातगुणी वृद्धि होते रहने से ( हेतु) । यो अनुमान बनाकर सूत्रोक्त सिद्धान्तको युक्तिपूर्वक साध दिया गया है । अर्थात् जैसे अपने आत्मीय प्रसन्नताकी उत्तरोत्तर वृद्धि होते रहनेसे रोगोत्पादक या चिन्ताकारक पौद्गलिक पर्यायोंकी असंख्यात गुणी निर्जरा हो जाती है । ( अन्वयदृष्टांत) उसी प्रकार आत्मीय विशुद्धि के बढते रहने से कर्मोंकी निर्जरा होना बढता चला जाता है ।