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नवमोध्यायः
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अगले सूत्रका अवतरण यह है कि परीषहोंके जीतने और तपश्चरणसे कर्मोंकी निर्जरा होना जो कहा गया है । वहाँ यह स्पष्ट नहीं समझा जाता है कि सभी सम्यदृष्टि जीवोंके कर्मोंकी निर्जरा होना क्या समान है ? अथवा क्या किसी किसी सम्यग्दृष्टिकी कर्मनिर्जरा न्यून या अधिक भी है ? ऐसी निर्णय करनेकी इच्छा प्रवर्तनेंपर सूत्रकार महाराज अग्रिम सूत्रको कह रहे हैं । सम्यग्दृष्टिश्रावकविरतानन्तवियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशांतमोहक्षपकक्षीणमोहजिनाः क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जराः ॥ ४५ ॥
सम्यग्दृष्टि, श्रावक, विरत, अनन्तवियोजक दर्शनमोहक्षपक, चारित्रमोह, उपशमक, उपशांतमोह, चारित्रमोहक्षपक, क्षीणमोह और केवलज्ञानी जिनेंद्र इन दशों आत्मज्ञानियोंकी क्रमसे उत्तरोत्तर असंख्यात गुणी कर्मनिर्जरा होती रहती है । भावार्थ -- भव्य, पंचेन्द्रिय, संज्ञी, पर्याप्तक, सातिशयमिथ्यादृष्टी जीव, काललब्धि, प्रायोग्यलब्धि, विशुद्धिलब्धि आदि सहकृत हो रहा सन्ता परिणामोंकी विशुद्धिसे बढ रहा जब पहिले गुणस्थानके अन्तिम अन्तर्मुहूर्तमें अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण ये तीन करण करता है । उस अवसरपर अपूर्वकरण अवस्था में अनन्तानन्त कर्मोकी निर्जरा करता है । यहां मूलमें अनन्तानन्त कर्मोंसे असंख्यातगुणा गुणाकार लगाया जाय यदि मूलमें असंख्यात कर्मोंकी निर्जरा मानकर पुनः दशस्थानोंपर क्या असंख्यात स्थानोंतक भी असंख्यात गुणी निर्जरा की जायगी तो भी जीवमें लग रहे अनन्तानन्त कर्मोकी निर्जरा हो जाना पूरा नहीं पडेगा । हां, मूलमें सातिशय मिथ्यादृष्टिके अपूर्वकरण दशा में हो रही अनन्तानन्त कर्मोकी निर्जरा माननेसे पुनः असंख्यात गुणी जो निर्जरा होगी वह अनन्तानन्त कर्मोंकी ही निर्जरा होगी। ऐसी दशामें किञ्चित् न्यून डेड गुणहानि प्रमाण संचित द्रव्यकी असंख्यात बारोंमें ही झटिति निर्जरा होकर मोक्ष हो जाना संभव जाता है । अपूर्वकरण परिणामोंके धारी सातिशय मिथ्यादृष्टिकी कार्मिक निर्जरासे चौथे गुणस्थानवर्ती प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि जीवके कर्मोंकी निर्जरा असंख्यात गुणी हो रही है, और काल तो पूर्व से संख्यात गुणा न्यून है । अर्थात् सम्यग्दृष्टि, श्रावक आदि पूर्व पूर्व जीवोंके जितने कालमे जितनी कर्मनिर्जरा हो जाती है । उत्तरोत्तर जीवोंकी उससे संख्यात गुणे कमती ही कालमें उन कर्मोसे असंख्यात गुणे कर्मोंकी