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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
क्वचिच्चिन्ता यानं नियतविषयं पुंसि कार्थितं, कचित्तस्याः कात्स्न्याद्विलयनमिदं सर्वविषयं, क्वचित्किंचिन्मुख्यं गुणमपि वदति प्रतिनयं,
ततश्चिन्त्यं सद्भिः परमगहनं जिनपतिमतम् ॥ ३० ॥
किसी किसी यानी छद्मस्थ अल्पज्ञानी आत्मामें एकही विषयको मुख्य नियतकर चिन्तन करना ध्यान कहा गया है । और किसी किसी अर्थात् केवलज्ञानी आत्मामें उस चिन्ताका पूर्णरूपसे नाश होकर संपूर्ण विषयोंको जान रहा यह ध्यान व्यवस्थित किया गया है । कहीं कहीं कोई ध्यान अन्यविषयोंसे चिन्ताओंको हटाकर एकही विषयमें रोके रहना मुख्य कहा गया है । और किसी नयके अनुसार उसी ध्यानको गौण भी कह देते हैं । तिस कारण प्रमाण प्रक्रियाके कुशलवेत्ता और नययोजनिकाके प्रकांड विद्वान् सज्जन पुरुषों करके प्रत्येक नयकी अपेक्षा लगाकर यह ध्यान तत्त्व चिंतन कर लेने योग्य है । चौथे गुणस्थानी जीवोंसे लेकर बारहमें गुणस्थानतकके कर्मजेता जिनोंके अधिपति हो रहे श्री जिनेंद्रभगवान्का शासन अतीव गम्भीर है । प्रमाण और नय विवक्षाके अन्तःप्रविष्ट कुशाग्रबुद्धि ध्यानी पुरुषों करके जिनेंद्रोक्त ध्यान तत्त्वका चिरकालीन अनुभव करके सुनिर्णय कर लेना चाहिये । अतीव गूढ विपयोंकी विशेष व्याख्या कर देनेसे अल्पज्ञों करके कदाचित् भूल हो जाना संभव है। अत: अनुभवगम्य शुभध्यानके गंभीर तत्त्वका विवेचन प्रमाण, नय, निष्ठ पुरुष स्वयं कर लेवें ।
इति नवमाध्यायस्य प्रथममान्हिकम् ॥ यहां तक उमास्वामि महाराज विचित मोक्षशास्त्र महान् ग्रंथके नववें अध्यायकी श्रीविद्यानन्द स्वामिविरचित श्लोकवात्तिक वृत्तिका पहिला आन्हिक समाप्त हुआ।
सद्गुप्त्यादिसमर्थकारणभवं दुष्कर्मणां संवरः शद्धात्मात्मकधर्मगभिततपोजन्यां दधन्निर्जरा, श्रेणी धर्म्यपरोधिरुह्य च वहन शुक्लद्वयं क्षायिकों, ध्यानं स्नातकसीमसंयमिगणः श्रेयो भृशं नः क्रियात् । १॥