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नवमोध्यायः
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है । केवलज्ञानी महाराजके जब भावमन नही है तो उनके एकाग्र होकर चिंताओंका निरोध कर लेना स्वरूपध्यान किस प्रकार सम्भावित होता है ? जैनोने केवलज्ञानी आत्माके पिछले दो शुक्लध्यानोंका होना जो अभी कहा है, उसे सुघटित कीजिये । ऐसी आशंका उपस्थित हो जानेपर ग्रन्थकार अग्रिम वार्तिकों द्वारा इस समाधानको कह रहे हैं ।
संक्लेशांगतयैकत्र चिंतां चिंतांतरच्युता ।
पापं ध्यानं यथा प्रोक्तं व्यवहारनयाश्रयात् ॥ १५ ॥ विशुध्धंगतया चैवं धर्म्य शुक्लं च किंचन । समनस्कस्य तादृक्षं नामनस्कस्य मुख्यतः ॥ १६ ॥ उद्भुतकेवलस्यास्यं सकृत्सर्वार्थवादिनः । ऐकाग्याभावतः केचिदुपचाराद्वदन्ति तत् ॥ १७ ॥
कोई मनुष्य अपने इष्ट पुत्रका वियोग हो जानेपर जैसे महान् संक्लेशको धारता हुआ आर्त्तध्यान करता है, और कोई हिंसानन्दी जीव हिंसाद्वारा रौद्रध्यान कर रहा है। ऐसे दुर्ध्यानोंके स्थलोपर अन्य चिंताओंसे च्युत यानी निरुद्ध हो रही एकही अर्थमें की गयी चिंता जैसे संक्लेशकारण या संक्लेशका कार्य अथवा संक्लेश स्वरूप हो जानेसे पापरूप ध्यान हो जाती है । यों ठीक कहा गया है उसी प्रकार व्यवहार नयका आश्रय कर लेनेसे चारों धर्म्यध्यान और कोई शुक्लध्यान भी विशुद्धिकार्य, विशुद्धिकारण और विशुद्धिस्वरूप यों विशुद्धिके अंग हो जानेसे तिस प्रकार मनवाले जीवके हीं हो रहे माने गये हैं । मुख्यरूपसे मनरहित जीवका कोई भी ध्यान नहीं होता है । अर्थात् आर्त्तध्यान, रौद्रध्यान जैसे मनस्वी जीवके होते हैं जो कि संक्लेशके अंग हैं, उसी प्रकार विशुद्धिके अंग हो रहे धर्म्यध्यान और दो पहिलेके शुक्लध्यान भी मनवाले जीवके ही संभवते हैं, असंज्ञी जीवके ध्यान नहीं होते हैं । तथा भाव मनसे रीते हो रहे तेंरहवें, चौदहवें गुणस्थानवाले केवलज्ञानीके भी मुख्य रूपसे ध्यान नहीं है । जब उनको संपूर्ण पदार्थों का युगपत् प्रत्यक्ष करनेवाला केवलज्ञान प्रकट हो गया है । तो वे अन्य विषयोंसे चिन्ताओंको हटाकर एक अर्थ में चिताको कथमपि नहीं रोके रह सकते हैं ।