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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
वस्तुतः उनको चिंता (मानसिक विचार) होना ही नहीं सम्भवता है,अतः अत केवलज्ञानीका मुख्यरूपसे ध्यान नहीं है। जब कि केवलज्ञान जिस जीवको प्रकट हो गया है. वह एक ही बारमें संपूर्ण अर्थोका साक्षात् ज्ञान कर लेता है। इसके अन्य अर्थोंसे हटाकर एक ही अर्थमें मुख्यतया ध्यान लगानेकी एकाग्रताका अभाव है। अतः केवलज्ञानियोंके वह ध्यान उपचारसे माना गया है ऐसा कोई विद्वान् समाधान कह रहे हैं।
चिंतानिरोधसद्भावो ध्यानात्सोपिनिबंधनं । तत्र ध्यानोपचारस्य योगे लेश्योपचारवत् ॥ १८ ॥ सर्वचिंतानिरोधस्तु यो मुख्यो निश्चितान्नयात् । सोस्ति केवलिनः स्थैर्यमेकाग्रं च परं सदा ॥ १९ ॥ मुख्यं ध्यानमतस्तंस्थं साक्षानिर्वाणकारणं । छद्मस्थस्योपचारात्स्यात्तदन्यास्तित्वकारणात् ।। २० ॥
उक्त अकलंकसमाधान श्रीविद्यानन्द स्वामीको संतोषकर प्रतीत नहीं होता है । “ परे केवलिनः" इस सूत्रोक्त रहस्यको ये मुख्य रूपसे साधना चाहते हैं। बात यह है कि ध्यानसे चिंताओंके निरोधका सद्भाव हो जाता है। वह चिन्तानिरोध भी उनके केवलज्ञानियोंमें ध्यानके उपचारका कारण हो रहा है। जैसे कि तेरहवें गुणस्थानमें कषायके नहीं होते हुये केवल योगके ही होनेपर लेश्याका उपचार मान लिया गया है। भावार्थ-एकाग्र होकर अन्य चिन्ताओंका निरोध करना ध्यान है। " कषायोदयानुरञ्जिता योगप्रवृत्तिर्लेश्या " कषायके उदयसे रंगी हुआ योगोंकी प्रवृत्ति लेश्या है । तेरहवें गुणस्थानमें केवल विशेष्य दल योग प्रवृत्ति है । कषायोदयसे रंगा हुआ यह विशेषण नहीं है । अतः लेश्या उपचारसे मानी गयी है। तदनुसार एकाग्रता विशेषणके नहीं घटनेपर मात्र चिन्तानिरोधको उपचारसे ध्यान मान लिया गया है किन्तु निश्चयनयसे विचारनेपर जो सर्व चिन्ताओंका निरोध हो जाना ध्यान है वह तो केवलीके मुख्य रूपसे माना ही है । तथा स्थिरतारूप उत्कृष्ट एकाग्रपना भी केवलज्ञानी मुनिके सर्वदा विद्यमान है । इस कारण विशेष्य दल और विशेषगदल दोनों घटित हो जानेसे उस केवलज्ञानीके ध्यान भी मुख्य मानना चाहिये जो कि ध्यान साक्षात् रूपसे मोक्षका