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तत्त्वार्थश्लोकवातिलंकारे
होता है । ये योगी अपने गृहीत योगका अतिक्रमण नहीं कर असंख्याते संयमोतक परिणामोंकी सन्तानको स्वकीय यत्नद्वारा करके तीसरें शुक्लध्यानको ध्यायेंगे ऐसी अनिच्छापूर्वक विधि है।
अथ चतुर्थ शुक्लं को ध्यायतीत्याह,--
तृतीय शुक्लध्यानके अधिकारीका निरूपण कर चुकनेपर अब चौथे शुक्लध्यानको कौन आत्मा ध्यावता है ? ऐसी जिज्ञासा उत्थित होनेपर ग्रन्थकार श्री विद्या नन्द आचार्य अगली दो वात्तिकोंका स्पष्ट प्रतिपादन करते हैं।
ततः स्वयं समुच्छिन्नप्रदेशस्पंदनं स्थिरः।। ध्वस्तनिःशेषयोगेभ्यो ध्यानं ध्याताप्तसंवरः ॥ १३ ॥ सम्पूर्णनिर्जरश्चान्त्ये क्षणे क्षीणभवस्थितिः। मुख्यं सिद्धत्वमध्यास्ते प्रसिद्धाष्टगुणोदयं ॥ १४ ॥
उस तीसरे शुक्लध्यानको ध्यायनेंके अन्तर्मुहुर्त पश्चात् छौदहवें गुणस्थानवाला परिस्पन्दरहित स्थिर मुनि स्वयं पुरुषार्थी बन रहा आत्मप्रदेशोंकी चंचलताको पूर्णरूपेण नष्ट कर चुका सन्त चौथे समुच्छिन्नक्रियानिर्वृत्तिनामक शुक्लध्यानको ध्यावता है। तेरहवें गुणस्थानतक योगोद्वारा कर्म आते रहते हैं, जब चौदहवें गुणस्थानमें योगोंका निःशेषरूपेण ध्वन्स कर दिया गया है तो अयोग अवस्थामें पूर्ण संवर प्राप्त हो चुका है। अतः परिपूर्ण संवरको धार रहा यह ध्याता चौथे शुक्लध्यानको ध्यावता है, तभी चौदहवें गुणस्थानके अन्तिम समयमें संपूर्ण कर्मोंकी निर्जरा करता हुआ संसार स्थितिको क्षीण कर सम्यक्त्व, ज्ञान, आदि आठ प्रसिद्ध गुणोंके अभ्युदयको धार रहे मुख्यसिद्धत्व पदपर आरूढ हो जाता है ! यो पूर्ण संवर और निर्जराको प्राप्त कर चौदहवें गुणस्थानके अन्तसमयतक संसारमें ठहरता हुआ अगले समयमें अनुश्रेणि इषु गतिद्वारा सात राजु ऊर्ध्व गमनकर सिद्धालयमें विराजमान हो जाता है।
___ अथामनस्कस्य केवलिनः कथमेकाग्रचिन्तानिरोधलक्षणं ध्यानं संभाव्यते इत्यारेकायामिदमाह, -
अब यहां कोई शंका कर रहा है कि मनको एकाग्र कर चिताओंका निरोध करना मनवाले जीवोंसे हो सकता है । मनके द्वारा विचार करना बारहवें गुणस्थानतक