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नवमोध्यायः
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अथ तृतीयं ध्यानं को ध्यायत इत्याह
इसके अनन्तर ग्रन्थकार तीसरे शुक्लध्यानको कौन जीव ध्यावता है ? ऐसा प्रश्न उपस्थित हो जानेंपर अग्रिम वार्त्तिकोंको स्पष्ट कह रहे हैं । ततो निर्दग्धनिःशेषघातिकर्मेधनः प्रभुः । केवली सदृशाघातिकर्मस्थितिरशेषतः ॥ १० ॥ संत्यज्य वाङ्मनोयोगं काययोगं च वादरं । सूक्ष्मं तु तं समाश्रित्य मन्दस्पन्दादयस्त्वरं ॥ ११ ॥ ध्यानंसूक्ष्मक्रियं नष्टप्रतिपातं तृतीयकं । ध्यायेद्योगी यथायोगं कृत्वा करणसंततिं ॥
१२ ॥
उस दूसरे शुक्लध्यान स्वरूप अग्निसे जिस समर्थ पुरुषार्थी योगीने संपूर्ण घातिकर्म स्वरूप ईन्धनको सम्पूर्णरूपेण जला दिया है । वह केवलज्ञानी या तीर्थंकर भगवान् उत्कृष्टतया पौने नौ वर्ष कम कोटि पूर्व वर्ष कालतक या जघन्यरूपेण अन्तमुहूर्त कालतक तेरहवें गुणस्थान की अवस्थामें विराजते हैं ।
यदि आयु, कर्म की स्थिति से तीन इतर अघाति कर्मोकी स्थिति अधिक होती है । तो वे योगी आत्मीय पुरुषार्थद्वारा दण्ड, कपट, प्रतर और लोकपूरण नामक केवलि समुद्घात करते हैं । आठवें समयमें गृहीत शरीर प्रमाण आत्मप्रदेशोंको करते हुये निःशेषरूपसे चारों अघाति कर्मोकी स्थितिको समान कर लेते हैं ।
हाँ, जिनकी पहिले से ही चारो अघाति कर्मों की स्थिति समान है । उनके केवलि समुद्घात करनेके पुरुषार्थ नहीं होते हैं ।
यों जिनके लगे हुये चार अघाति कर्मोंकी अवस्थिति समान है । वे केवल - ज्ञानी जिनेंद्र भगवान संपूर्ण रूपसे सत्य, अनुभय, मनोयोग और सत्य अनुभयवचनयोग तथा स्थूलकाययोगका तो भलें प्रकार त्याग कर पश्चात् उस सूक्ष्मकाय योगका बढिया आश्रय लेकर शीघ्रही मन्दरूपेण परिस्पन्द ( कंप) के उदयको धार रहे तेरहवें गुणस्थानवर्त्ती महात्मा जिनेंद्र भगवान् प्रतिपातको नाश कर चुके तीसरे सूक्ष्मक्रिय अप्रतिपातिनामक ध्यानको ध्यावते हैं । इनका नीचे की ओर या संसारमें पुनः पतन नहीं