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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
स एवामूलतो मोहक्षपणागूर्णमानसः । प्राप्यानंतगुणांशुद्धिं निरुन्धन् बंधमात्मनः ॥ ६॥ ज्ञानावृतिसहायानां प्रकृतीनामशेषतः । हासयन्क्षपयंश्चासां स्थितिबंधं समंततः ॥ ७॥ श्रुतज्ञानोपयुक्तात्मा वीतवीचारमानसः । क्षीणमोहो प्रकम्पात्मा प्राप्तक्षायिकसंयमः ।। ८ ।। ध्यात्वैकत्ववितर्कोख्यं ध्यानं घात्पघघस्मरं । दधानः परमां शुद्धिं दुःप्राप्यां न निवर्तते ॥ ९॥
और वही आत्मा जब मूलसहितरूपसे मोहनीय कर्मकी इकईस प्रकृतियोंका क्षय करनेमें मनोवृत्ति द्वारा पूर्ण उद्यत हो जाता है। तब आत्माकी प्रतिक्षण अनन्तगुणी विशुद्धिको प्राप्त कर ज्ञानावरण और उसके सहायक हो रही अन्तराय, दर्शनावरण, आदि कर्मप्रकृतियोंके बन्धको पूर्णरूपसे रोकता हुआ तथा उनके स्थितिबंधोंका सब ओरसे हास कर रहा एवं घाति कर्मोका क्षय करता हुआ प्रयत्नशील आत्मा आध्यात्मिक श्रुतज्ञानसे उपयुक्त हो जाता है।
जिसके मनसे अर्थ, व्यञ्जन, योगोंकी पलटन स्वरूप संक्रांति उस श्रुतज्ञान उपयोगसे दूर हो गयी है, क्षायिक चारित्रको प्राप्त हो रहा प्रकम्परहित क्षीणमोह आत्मा घाति कर्म पापोंको खा जानेवाले या जीतनेवाले एकत्व वितर्क नामके ध्यानको ध्यायकर बडी कठिनतासे प्राप्त होने योग्य परम विशुद्धिको धारण कर रहा सन्त फिर निवृत्त नही होता है । अर्थात् संसारमें लौटता नहीं है, मोक्षको चला ही जाता है। या इस ध्यानके अतिरिक्त अन्य किसी भी कारणसे नहीं प्राप्त करने योग्य परमविशुद्धिको धार लेता है। यों एकपनेसे वितर्कणा कर रहा क्षीणमोही बारहवें गुणस्थानवाला आत्मा दूसरे शुक्लध्यानको ध्यावनेंके लिये प्रयत्नवान् हो जाता है।
अनंतगुणी विशुद्धि, प्रकृतिक्षय, अनुभाग खंडन, स्थितिकाण्डकघात, निर्जरा आदि विलक्षण प्रकारके अतिशय इस शुक्लध्यानीके प्रवर्त रहे हैं । इस निर्ग्रन्थ मुनिके अन्तर्मुहूर्त कालपश्चात् केवल ज्ञानसूर्यका उदय हो जानेवाला है ।