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नवमोध्यायः
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यहां कोई प्रश्न उठाता हैं कि उस पहिले शुक्लव्यानको ध्यायनेके लिये किन लक्षणोंसे मुक्त हो रहा ध्यान करनेवाला आत्मा समर्थ होता हैं ? बताओ । ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तनपर ग्रन्थकार महाराज इन अग्रिम वात्तिकोंको विशदतया कह रहे हैं।
कृतगुप्त्याद्यनुष्ठानो यतिऊर्यातिशायनः । अर्थव्यञ्जनयोगेषु संक्रान्तौ पृथगुद्यतः ।। ३ ॥ तदोपशमनान्मोहप्रकृतीः क्षपयन्नपि । यथापरिचयं ध्यायेत्वचिद्वस्तुनि सक्रियः ॥४॥ सवितकं सवीचारं पृथक्त्वेनादिमं मुनिः । ध्यानं प्रक्रमते ध्यातु पूर्ववेदी निराकुलः ॥५॥
जो संयमधारो प्रयत्नशील मुनि पूर्वोक्त गुप्ति, धर्म, अनुप्रेक्षा आदि आत्मीय शुभ परिणतियोंपर स्वतन्त्र अधिकार रखता हुआ, उनका पालन कर रहा है, तथा आत्मीय पुरुषार्थ हो रहे वीर्य विशेषके अतिशयको धार रहा है, विशेष सामर्थ्यकी कुछ हानि हो जानेसे अर्थ, व्यञ्जन और योगोंमें पृथपने करके संक्रमणके निमित्त उद्यत हो रहा है, उपशम श्रेणीमें मोहनीय कर्मको प्रकृतियोमे उपशम कर रहा और क्षपक श्रेणीमें उन प्रकृतियोका क्षय भी कर रहा सन्ता अपने पुरुषार्थ पूर्वक ज्ञानद्वारा पूर्वपरिचय अनुसार किसी एक वस्तुमें ध्यान लगाता है । वह प्रयत्न क्रियासहित हो हो रहा सन्ता पूर्ववेत्ता मुनि निराकुल होकर आदिके पृथपने करके वितर्कसहित और धीचारसहित ध्यावको ध्यावनेके लिये प्रथम आरम्भ करता है। अतिरिक्त यह कहना है कि "वोचारोऽर्थव्यञ्जनयोगसंक्रान्तिः” इस सूत्रका विवरण करते हुये श्री अकलंकदेव महाराजने इसका तत्त्वार्थ राजवाति कमें विशद विवेचन किया है। विशेषज्ञानो' उसका अध्ययन, मनन, कर सन्तोष प्राप्त करें।
अथ द्वितीयं को ध्यातुमर्हतीत्याह,--
पुनः प्रश्न उठाया जा रहा है कि इसके पश्चात् अब यह बताओ कि दूसरे शुक्लध्यानको कौन आत्मा ध्यायनेके लिये समर्थ होता है ? ऐसो जिज्ञासा उत्थित हो जापैपर ग्रन्थकार अग्रिम वार्तिकोंका स्पष्ट प्रतिपादन कर रहे हैं।