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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
वह प्रथम शुक्लध्यान में उपयोगी हो रहा वीचार तो अर्थ, व्यजन, और योगोंमें जो परिवर्तन होना है, यही समझा जायगा। यहां वीचारका अर्थ मीमांसा यानी तर्करणा करना, संकल्पविकल्प पर्वक विचार करना (मान-विचारे) या विचारपूर्वक तत्वनिर्णय करना नहीं है। क्योंकि ( चर-गती ) धातु इस गति यानी गमन, परिवर्तन अर्थ में प्रतिष्ठित हो रही है। " इस्तिपो धातुनिर्देश" सप्तमी विभक्तिका अर्थ निष्ठत्व (में)होता है । यो वि उपसर्गपूर्वक चर धातुसे घञ्प्रत्यय करनेपर वीचार शब्दकी निरुक्तिद्वारा ही प्राप्त हुये अर्थका व्यभिचारीपना नहीं देखनसे सूत्रकारने स्वयं इस प्रकार उक्त दो सूत्रों करके वितर्क और वोचारका लक्षण बहुत बढिया कह दिया है । यदि " अर्थस्य व्यभिचारित्वदर्शनात " ऐसा पाठ माना जाय तो यों अर्थ कर लिया जाय कि प्रकृति प्रत्यय अनुसार निरुक्तिसे प्राप्त हुये, यौगिक अर्थका व्यभिचार देखा जाता हैं । अतः सूत्रकारको वितर्क और वीवारका योगरूढि अर्थ करना पड़ा है।
__द्रव्यं हित्वा पर्याये तं त्यक्त्वा द्रव्ये संक्रमणमर्थसंक्रान्तिः, अर्थस्य द्रव्यपर्यायात्मकत्वात् । एवं श्रुतवचनमवलंब्य श्रुतवचनान्तरालम्बनं व्यंजनसंक्राान्तिः । काययोगाद्योगान्तरे ततोपि काययोगे संक्रमणं योगसंक्रान्तिः । एवं परिवर्तनं वीचारस्तेन युतं वितर्केण च श्रुताख्येन विशिष्टं पृथक्त्ववितर्कवीचारं प्रथमशुक्लध्यानं । कीदृग्ध्याता तध्यातुमहतीत्याहः
जैनसिद्धान्त अनुसार अर्थ यानी वस्तु तो इन द्रव्य और पर्यायोंका तदात्मक हो रहा अविष्वग्भाव पिण्ड है । अर्थात् वस्तुके द्रव्य और पर्याय दोनों अंश है । अतः एक ही ध्यान बना रहकर द्रव्यको छोडकर पर्यायमें और उस पर्यायको छोडकर द्रव्यमें संक्रमण होते रहना अर्थसंक्रान्ति है।
इसी प्रकार एक शास्त्रीय वचनका अवलंब पाकर दूसरे भिन्न शास्त्रीय वचनोंका सहारा ले लेना व्यञ्जन संक्राति है । अर्थात् "अठवियकम्मवियला" का विचार करते हुये, " चदुघाइकम्मो" या " एगो मे सासदो आदा" इत्यादि वचनोंका आलम्बन बदल कर ले लिया जाता है। तथा काययोगसे अन्य दूसरे मनोयोग या वचनयोगमें और उस योगसे भी काययोगमें परिवर्तन हो जाना योगसंक्रान्ति है । इस प्रकार परिवर्तन होना यहां वीचार हैं। उस वीचारसे मिश्रित हो रहा और श्रुतज्ञान नामक वितर्क करके विशिष्ट हो रहा पृथक्त्व वितर्क वीचार संज्ञक पहिला शक्लध्यान है।