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नवमोऽध्यायः
तथाऽवितर्कवीचारे परे शुक्ले निवेदिते । काययोगाधिनाथत्वादयोगाधिपतित्वतः ॥ ३॥
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अर्थ और व्यञ्जनका संक्रमण नहीं कर केवल एक योगको धार रहे उस दूसरे ध्यानके ध्याता जीवके उन अर्थ, व्यञ्जन योगोंके परिवर्तनका उपजना कथमपि नहीं होने के कारण दूसरा शुक्लध्यान वोचाररहित है, इस सिद्धान्तको अपवाद रूपसे सूत्रकारने इस सूत्र में बहुत अच्छा कहा है । तिस कारण यह राद्धान्त यहाँ व्यवस्थित हो जाता है कि पूर्ववर्ती पहिला शुक्लध्यान तो वितर्क और वीचारसहितपने की सामर्थ्य से ध्याया जा रहा पृथकपने करके वितर्कसहित और वीचारसहित है ।
दूसरे शुक्लध्यानका एकपने करके वितर्कसहित होकर वीचाररहितपना इस सूत्र में कहा गया है । तथा परिशेषन्याय अनुसार यह बात भी इन्हीं सूत्रोंसे व्यक्त होकर निवेदन कर दी जाती है कि परले दो शुक्लध्यान तो वितर्क और विचार दोनोंसे रहित हैं। क्योंकि तीसरे शुक्लध्यानका पूर्ण अधिकार ले रहा स्वामी सूक्ष्म काययोगी केवलज्ञानी है ।
चौथा शुक्लध्यान तो योगरहित चौदहवें गुणस्थानवर्त्ती केवलज्ञानीको अधि - पति मान कर ही उपजता है । अतः अभ्वय व्यतिरेकको ले रही अन्यथानुपपत्ति अनुसार इस सूत्र का प्रमेय सिद्ध हो जाता है ।
कोऽयं वितर्क इत्याह, -
यहां कोई प्रश्न उठाता है कि आदिके दो शुक्लध्यान आपने वितर्कसहित बतलाये । वितर्क के कितने ही अर्थ होते हैं । विशेषेण तर्कण करना वितर्क है । जि + तक वैशेषिकोंने तर्कको अयथार्थज्ञानों में गिना है । कहीं व्याप्तिज्ञानको तर्क माना गया है । गौतम सूत्र में " अपरिज्ञाततत्त्वेऽर्थे कारणोपपत्तितस्तत्त्वज्ञानार्थमूहस्तर्कः अन्यत्र " व्याध्यारोपेण व्यापका रोपस्तर्कः " कहीं " व्यापकाभाववत्वेन व्याप्याभाववत्त्वसमर्थनं ” को तर्क कहा गया है। यदि वन्हि नहीं होती तो धूम भी नहीं होता " धूमो यदि वहिव्यभिचारी स्यात् तदा वन्हिजन्यो न स्यात् तथा पर्वतो यदि निर्वन्हिःस्यात् निर्धूमः स्यात् " यों व्याघात, आत्माश्रय, इतरेतराश्रय, चक्रक, अनवस्था, प्रतिबन्धि कल्पना, लाघवकल्पना, गौरव, उत्सर्ग, अपवाद, वैयात्य, ये ग्यारह प्राचीन नैयायिकोंने तर्कके भेद माने हैं । कोई " प्रमाणनयैरर्थपरीक्षणं तर्कः " कह रहे हैं । ऐसी अवस्था मे
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