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तत्वार्थदल कवतिकालंकारे
निर्णय करनेकी इच्छा प्रवर्त्तती है कि यह प्रकरण में प्राप्त हो रहा वितर्क भला क्या पदार्थ है ? बताओ । ऐसी उत्कट इच्छा जागनेपर कृपानिधान सूत्रकार महाराज इस अग्रिम सूत्रको कह रहे हैं ।
वितर्कः श्रुतम् ॥ ४३ ॥
विशेषेण तर्कणा करना अर्थात् एक अर्थसे अनेक अर्थान्तरोंका मानसिक विचार करना स्वरूप श्रुतज्ञानका यहाँ वितर्कपद से ग्रहण किया गया है । अतीन्द्रिय शुक्लध्यानका उपयोगी हो रहा विशिष्ट जातिका श्रुतज्ञान वितर्क है ।
किमेतत्सूत्रवचनादभिप्रेतमित्याह -
यहां कोई व्यर्थका लाघव दिखा रहा आक्षेप कर रहा है कि इस सूत्रका निरूपण करनेसे सूत्रकार महाराजके अभिप्रायका क्या वाच्यार्थ विषय हो रहा है ? बताओ, यों आक्षेप प्रवर्तनैपर ग्रन्थकार इस अग्रिम वार्तिकको स्पष्ट कह रहे हैं ।
वितर्कः श्रुतमस्पष्टतर्कणं न पुनर्मतेः । भेदश्चिन्ताख्य इत्येतत्सूत्रारम्भादभीप्सितं ॥ १ ॥
वितर्कका अर्थ यहाँ श्रुत हैं । जो कि परोक्षज्ञानरूपेण अस्पष्ट तर्करणा करना
हैं । किन्तु " मतिः स्मृतिः संज्ञा " इत्यादि सूत्र में मतिज्ञानका भेट जो चिन्ता नामका
कहा गया है, वह चिन्ताका अर्थ तर्क फिर यहां नहीं लिया प्रारम्भ कर देनेसे सूत्रकारको अभीष्ट अर्थ हो रहा है । व्यावृत्ति करना लक्षण करनेका प्रयोजन है ।
गया हैं। यों इस सूत्रका अर्थात् अन्य अनिष्टों को
वितर्क के इस पारिभाषिक अर्थ करके चिन्ता मतिज्ञानके समान अन्यदार्शनि कोंके तर्क की भी व्यावृत्ति हो जाती है । इतरोंका अभाव कर देनेसे ही स्वकी अक्षुण्ण रक्षा हो पाती हैं। परापेक्षया नास्तित्व ही स्व अस्तित्वको दृढ बनाये रखता है ।
पूज्य महामना ग्रन्थकारके अष्टसहस्री ग्रन्थ में इस परव्यावृत्तिका बहुत अच्छा विवेचन किया हैं । जो कि अन्य ग्रन्थों में सर्वथा दुर्लभ है । जिस स्थानपर हम निराकुल होकर बैठे हुये हैं, वहां सर्प, व्याघ्र, नक्र, चक्र, सिंह, मत्तगज, वात्या, अग्नि- दाह, भूकम्प, जलवाढ, विद्युत्पात, राजक्रान्ति आदि उत्पातोंका अभाव परिपूर्ण बना रहना चाहिये । एक सर्पके अभावकी भी उपेक्षा कर देनेपर भट क्रोधी, काला भुजंग,