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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
यहाँ कोई आक्षेप उठा रहा है कि चाहे हजारों, असंख्यों पदार्थ क्यों न होवे उनमे पूर्ववर्ती एक ही होगा। दो, तीन, चार कथमपि आद्य या पूर्ववर्ती नहीं हो सकते हैं । आप पूर्वपदसे दो ध्यान कैसे पकड रहे हैं ? .
आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना, क्योंकि इस आक्षेपका उत्तर हम पहिले कह चुके हैं कि उसके समीपवर्तीको भो उपचारसे वही कह दिया जाता है। दुष्ट और शिष्टको संगति करनेवाला पुरुष भी उसी दुष्ट या शिष्ट रूपसे व्यवहार कर योग्य हो जाता हैं । अतः प्रथमका निकटवर्ती दूसरा भी पूर्व कहलाने योग्य है । एक बात यह भी है कि प्रथमाद्विवचन औ विभक्तिका नपुंसक लिंगमे पर्वे यह रूप बना है। अतः द्विवचनकी सामर्थ्यसे दो पहिलोंका ग्रहण हो जाना न्यायप्राप्त है ।
तत्र यथाप्रसंगे च अनिष्टनिवृत्त्यर्थमिदमारभ्यते,
यथासंख्य उक्त प्रकार उन दोनों धर्म्यध्यानोंमे वीचारसहितपना प्रसंग प्राप्त हुआ। और ऐसा हो जावेसे दूसरे शुक्लध्यानको वीचारसहितपना थाया, जो कि इष्ट नहीं हैं । अतः उस अनिष्टकी निवृत्ति करने के लिये सूत्रकार महाराज लगे हाथ इस अग्रिम सूत्रका प्रारम्भ करते हैं । अर्थात् सूत्रोंमें शब्दविन्यास अल्पीयान होना चाहिये । इसी बातका लक्ष्य कर यह प्रशंसनीय प्रयत्न सत्रकारको करना पडा है। ऐसा " बारभ्यते " पदमें कर्मणि प्रत्यय करनेसे ध्वनित हो जाता हैं । तन्त्री वजनेसे संगीतकी राग, रागिणी पहिचान ली जाती है ।
अवीचारं द्वितोयम् ।। ४२॥ पूर्वके दो शुक्लव्यानोंमें दूसरा ध्यान तो वीचारसे रहित है। अर्थात् पहिला तो वितर्क और वीचारसे सहित है। हां, दूसरा शुक्लध्यान वितर्क यानी श्रुतज्ञानीय चर्चाओंसे सहित है, किन्तु अर्थ, व्यञ्जन योगोंके परिवर्तन स्वरूप वीचारसे रहित है। यह अपवाद सूत्र है । इसी सूत्रोक्त मन्तव्यको ग्रन्थकार अग्रिम वार्तिकोम स्पष्ट कह रहे हैं।
अवीचारं द्वितीयं तत्सांकान्तरसमुद्भवात् । एकयोगस्य तद्धातुरिति पाहापवादतः ॥ १ ॥ सवितर्क सवीचारं पृथक्त्वेन ततः स्थितं । प्राच्यं शुक्लं तु सवितर्कवीचारबलादिह ॥ २ ॥