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नवमोध्यायः
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कुत इत्याह-
कोई ऊहापोह करनेवाला छात्र पूंछता हैं कि यह इस सूत्र में कहा गया सिद्धांत किस युक्तिसे निर्णीत कर लिया जाय ? बताओ, ऐसी जिज्ञासा उठने पर ग्रभ्थकार अग्रिम दो वार्तिोंको कह रहे हैं ।
एकाश्रये परिप्राप्तवतज्ञानाश्रयत्वतः ।
सवितर्के श्रुते तत्वात्सवीचारे च संक्रमात् ॥ १ ॥ अर्थव्यञ्जनयोगेषु सामान्येनोपवर्तिते ।
पूर्वे शुक्ले त्रियोगक योगसंयतसंश्वयात् ॥ २ ॥
आत्म विशुद्धिके लिये अतोव उपयोगी हो रहे श्रुतज्ञानको चारों अनुयोगद्वारा प्राप्त कर चुके एक व्यक्ति श्रुतज्ञानीको आश्रय पाकर प्रारम्भ किये जानेवाले होने से पहिले दो शुक्लध्यान एक आश्रयवाले हैं, ऐसा सूत्रकारने इस सूत्र के आदिमे युक्त कहा हैं । और वितर्कणा यानो अर्थ से अर्थान्तरोंका उपलम्भ करना स्वरूप श्रुतज्ञानकी प्राप्त हो रहे होने से इस सूत्र मे आद्य दो शुक्लध्यानोंको वितर्कसहित कहना युक्तिपूर्ण है, तथा अर्थ, व्यञ्जन और योगोंमे सामान्य रूपसे परिवर्तन होते सन्ते ये उपजते रहते हैं । अतः संकमण होनेसे इनको वीचारसहित कहना सूत्रकार महोदयका परार्थानुमान पूर्ण है । पूर्ववर्त्ती दोनों शुक्लध्यान यथाक्रमसे तीन योगवाले और एक योगवाले संयमी मुनिका अच्छा आश्रय पालेनेसे उपजते हैं । यों आप्त प्रोक्त आगमगर्भित युक्तियों से परिवेष्टित हो रहा इस सूत्र का रहस्य हैं | आगमानुसारिणी युक्ति सद्युक्ति है, आगमविरुद्ध युक्तिको कुयुक्ति मानना चाहिये ।
पूर्व विदारभ्यत्वादेकाश्रयत्वसिद्धिः । सवितर्कवीचारे इति द्वन्द्व पूर्वोन्यपदार्थनिर्देशः । पूर्वत्वमेकस्यैवेति चेन्न, उक्तत्वात् ।
पूर्व विद्वान् करके प्रारम्भ करने योग्य होनेसे आद्य दो शुक्लोंका एकाश्रपना सिद्ध हो जाता हैं । " सवितर्कवीचारे " इस पदमें पहिले वितर्कश्च वीचारश्च वितर्कवीचारीयों द्वन्द्वसमास किया जाय, पूनः वितर्कवीचाराभ्यां सहवर्तत इति सवित - र्कवीचारः, यों विग्रहमें कहे गये पदों के अर्थसे न्यारे अन्य पदार्थका प्रधानरूपेण कथन करते हुये, बहुब्रीहिसमास कर लिया जाय ।