________________
तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
३१२)
कर लिया जाय तब तों सूत्र की व्याख्या कर दी जाती है कि मन, वचन काय सम्बन्धी तीनों योगवाले संयमीके पहिला पृथक्त्ववितर्कवीचार शुक्लध्यान हो जाता है । तीनों योगोमेसे किसी भी एक योगको धार रहे यथाख्यात चारित्रीके दूसरा एकत्व वितर्क अवीचार शुक्लध्यान बन जाता है । केवल काययोगको धार रहे परम गुरुके तीसरा सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाती शुक्लध्यान उपजता हैं । तथा योगों से रहित हो गये अयोगकेवली भगवान्के चौथा व्युपरत क्रियानिवर्त्ती शुक्लध्यान पाया जाता है । उस हीं आगम प्रसिद्ध सिद्धान्तको आचार्य महाराज अगिली दो वार्तिकों में कह रहे हैं । तत्र प्राच्यं त्रियोगस्यैकैकयोगस्य तत्परं । तृतीयं काययोगस्यायोगस्य च तुरीयकं ॥ १ ॥ योगमार्गणया तेषां सद्भावनियमः स्मृतः । एवं त्रीत्यादिसूत्रेण विवादविनिवृत्तये ॥ २ ॥
उन चार शुक्लध्यानों में पहिला तो तीनों योगवाले एक जीवके सम्भव जाता हैं। उससे पहला, दूसरा शुक्लध्यान एकयोगी जीवके प्रवर्तता है । सूक्ष्मकाय योगवाला जिन तीसरेको धारता है । और योगरहित चौदहवें गुरणस्थानवाले आत्माके चौथा शुक्लध्यान वर्तता है, जो योगद्वारा जीवोंको ढूढनेवाली योगमार्गरणा करके " त्र्येकयोग " इत्यादि सूत्रद्वारा विवादोंकी विशेषरूपेण निवृत्ति करनेके लिये इस उक्त प्रकार उन ध्यानोंके सद्भावका नियम सर्वज्ञ आम्नाय अनुसार स्मरण कर कह दिया गया है । तत्राद्ययोविशेषप्रतिपत्त्यर्थमाह
-1
उन चारों शुक्लध्यानोंमें आदिके दो शुक्लध्यानोंकी विशेषतया प्रतिपत्ति कराने के लिये सूत्रकार स्वयं अग्रिमसत्रको स्पष्टतया कह रहे हैं ।
एकाश्रये सवितर्कवीचारे पूर्वे ॥ ४१ ॥
श्रुतज्ञानी आत्मा करके पहिले दो शुक्लध्यान आरम्भे जाते हैं, अत: एक श्रुतज्ञानी उन दोनोंका आश्रय है । तथा पूर्ववर्त्ती दोनों शुक्लध्यान वक्ष्यमारण लक्षणवाले वितर्क और वीचारसे सहित है । अर्थात् अनुपम श्रुतज्ञानी किसीकी सहायता नहीं चाहता हुआ दो शुक्लध्यानोंको धार लेता है। जिन दोनोंमें अनेक शास्त्रीय तर्करणायें विचारी जाती है । पहिले ध्यान में वीचार भी हैं । दूसरेमे वीचारका रहितपना अग्रिम सूत्रद्वारा कहा जानेवाला हैं ।