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योगिक अर्थ निकल रहा अभीष्ट नहीं हैं, उनका पारिभाषिक अर्थ करनेके लिये लक्षण सूत्र बना दिये हैं । अतः इन ध्यानोंका स्वरूप प्रकृति, प्रत्ययसे ही समझ लिया जाय तिस ही कारण से ग्रन्थकार अग्रिम वार्त्तिकको स्पष्ट कह रहे हैं ।
पृथकत्वेत्यादिसूत्रेणान्वर्थनामानि तान्यपि ।
शुक्लानि कथितान्युक्तस्वामिभेदानि लक्षणैः ॥ १ ॥
चारों शुद्ध ध्यानोंके भिन्नभिन्न स्वामी तो पहिले दो सूत्रोंमें कहे जा चुके थे । अब इस " पृथक्त्वैकत्व " इत्यादि सूत्र करके अन्वर्थ संज्ञाओंको धर रहे उन चारों भी शुक्लध्यानोंका लक्षणोंसे भी कथन कर दिया गया हैं । अन्वर्थ संज्ञावाले लक्ष्यका लक्षण वह प्रकृति, प्रत्यय, अर्थ ही बन बैठता है ।
अथैतेषु चतुर्षु शुक्लध्यानेषु किं कियद्योगस्य भवतीत्याह, -
यहाँ कोई प्रश्न उठाता हैं कि अब यह बताओ कि इन चारों शुक्लध्यानों में कौन कौनसा कितने कितने योगवाले जीवके हो जाता हैं ? ऐसी आकांक्षा उठनैपर परमकारुणिक सूत्रकार महाराज इस अग्रिम सूत्रको कह रहे हैं ।
त्र्येकयोगकाययोगायोगानाम् ॥ ४० ॥
तीनों योगोंवाले जीवके, एकयोगवाले जीवके, काययोगी केवलीके, और अयोग केवलोके यथाक्रमसे उक्त चारों ध्यान हो रहे पाये जाते हैं । अर्थात् पहिला शुक्लध्यान ध्यावते हुये जीवके अन्तर्मुहूर्त स्थायी तीनों योग पलट जा सकते हैं, तो भी वह ध्यान एक ही अखण्ड लडीबद्ध बना रहता है। हां, दूसरे शुक्लध्यानके लिये एक ही योग मे स्थिर रहना आवश्यक है । तीसरा शुक्लध्यान तो मनोयोग, वचनयोग और बादर काययोगकी अवस्था में न होकर मात्र सूक्ष्म काययोग हो जानेपर स्वपुरुषार्थ से सम्पादित होता है । और चौथा शुक्लध्यान, योगरहित दशा में धारण किया जाता है ।
योगशब्दो व्याख्यातार्थः । यथासंख्यं चतुर्णां सम्बन्धः । त्रियोगस्य पृथक्त्व वितर्क, त्रिषु योगेष्वेकयोगस्येकत्ववित्तकं, काययोगस्य सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति, अयोगस्य व्युपरत . क्रियानिवर्तीति । तदाह
नवमोध्यायः
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कायवाङ्मनः कर्मयोगः इस सूत्र मे योग शब्दका व्याख्यान किया जा चुका हैं । सूत्रमै कहे गये चारों स्वामियोंका चारों ध्यानोंके साथ संख्या अनुसार संबन्ध