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नवमोध्यायः
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चनमातरः " ऐसा लिखा है । हां, आत्मविशुद्धि के प्रकृष्ट अध्यवसायसे उत्पन्न हुये, उच्च कोटीय अविभाग प्रतिच्छेदों को धार रहे पृथक्त्ववितर्कवीचार, और एकत्ववितर्क वचारध्यान तो पूर्ववेत्ता श्रुतकेवलीके ही होंगे, ध्यानमे ज्ञानकी बडी आवश्यकता है । जितना ज्ञान अच्छा होगा, उतना ही बढिया ध्यान लग सकेगा । ज्ञान या भावनाये ही चिन्तानिरोधको करती हुई एकाग्र केन्द्रित होकर ध्यानका रूप धार लेती हैं। तभी तो श्रुतवली संयमी उत्कृष्ट श्रेणीके आद्य दो शुक्लध्यानोंका होना इस सूत्रमे कहा गया है । सूत्रमे पडा हुआ च शब्द तो पूर्ववर्त्ती धर्म्यध्यानका समुच्चय करनेके लिये है ।
यहाँ कोई प्रश्न उठाता है कि क्या विचार कर श्री उमास्वामी आचार्य महाराजने यह सूत्र इस प्रकार कहा है ? उनको प्रथम शुक्लध्यानके भेद या लक्षण करने चाहिये थे । जैसा कि पहिले ध्यानों में क्रम रक्खा गया है । प्रथमसे ही शुक्लध्यान के अधिकारी स्वामीका निरूपण करना हमे अच्छा नहीं जंचा । ऐसो सकटाक्ष पृच्छना उपस्थित हो जानेपर ग्रन्थकार इस अग्रिम वार्तिकको समाधानार्थ कह रहे हैं ।
मत्वा चत्वारि शुक्लानि प्रोच्यमानानि सूरिणा । पूर्वविदः शुक्ले धर्म्यं चेत्यभिधीयते ॥ १ ॥
निकट भविष्यमे बढिया कहे जा रहें चार शुक्लध्यानोंको मनसे बुद्धिमे चिन्तन कर सूत्रकार आचार्य महोदयने आद्य दो शुक्लध्यान पूर्ववेत्ता श्रुतज्ञानीके हो जानेवाले कह दिये हैं । और चकार पदसे चतुर्दशपूर्वधारीके धर्म्यध्यानका हो जाना भी इसो सूत्र द्योतित कर कहा जा रहा हैं ।
विषयविवेकापरिज्ञानमिति चेन्न, व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तेः । श्रेण्यारोहणात्प्राक् धर्म्यध्यानं श्रेण्योः शुक्लध्यानमिति व्याख्यानं विषयविबेकपरिज्ञाननिमित्तमाश्रीयते । तथाहि
यहां कोई चोद्य उठा रहा है कि च शब्द करके पूर्वके धर्म्यध्यातका समुच्चय किया जानेपर भी विषय यानो अधिकरणका विवेचन या पृथग्भाव नहीं परिज्ञात हो पाता हैं कि श्रुतज्ञानीके कहांपर दो शुक्लध्यान हैं । और किन गुणस्थानोंमे उसके धध्याव पाया जाता है ? । ग्रन्यकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना, क्योंकि सामा, न्योक्त गम्भीर शब्दोंका - व्याख्यान कर देनेसे सामान्यगर्भित अनेक विशेषोंकी प्रतिपत्ति