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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
महर्षिप्रोक्त आगमग्रन्थों अनुसार उपशमधेणी और क्षपकश्रेणी दोनोंमे धर्म्यध्यानका सद्भाव अभीष्ट नहीं किया है, आगमविरुद्ध मन्तव्य अपसिद्धान्त हैं । तिस कारण दोनों श्रेणियोंमे और उन उपशोतकषाय, क्षीणकषाय, गुणस्थानोंमे अकेला शुक्लध्यान हो पाया पाता है। यह सम्मान्य करना चाहिये ।
अथ श्रुतकेवलिनः किं ध्यानमित्याह,
धर्म्यध्यानका निरूपण हो चुका, अब चौथे ध्यानका प्ररूपण प्राप्त अवसर होनेपर अग्रिम सूत्रको उत्थानिका की जा रही है कि श्रुतकेवली महाराजके कौनसा ध्यान है । छठे, सातमे गुणस्थानवर्ती श्रुतकेवलीके तो धर्म्यध्यान ही संभवेगा, किन्तु वक्ष्यमाण चार प्रकार शुक्लध्यानोंमें श्रुतकेवलीके कौन कौन शुक्लध्यान पाये जा सकते हैं ? ऐसी विनीत शिष्यको जिज्ञासा प्रवर्तनेपर दयापयोनिधि सूत्रकार महाराज इस अग्रिम सूत्र का स्पष्ट प्रतिपादन कर रहे हैं।
शुक्ले चाये पूर्वविदः ॥ ३७ ॥ भविष्यमे कहे जानेवाले शुक्लध्यानके चार भेदोंसे आदिके दो शुक्लध्यान तो चतुर्दशपूर्ववेत्ता यानी सकलश्रुतज्ञानी संयमीके हो रहे हैं। समुच्चय अर्थको कह रहे च अव्यय करके यह अर्थ भी घोतित हो जाता है कि श्रुतकेवली महाराजके धर्म्यध्यान भी पाया जाता है।
, पूर्वविद्विशेषणं श्रुतकेवलिनस्तदुभयप्रणिधानसामर्थ्यात् । च शब्द पूर्वध्यानसमुच्चयार्थः । किं कृत्ववमुच्यते सूत्रमाचायरित्याह
सम्पूर्ण श्रुतज्ञानके धारी श्रुतकेवलीके उन दोनों आद्यशुक्लव्यानों अनुसार एकाग्रचित्त लगाये रहनेकी सामर्थ्य है। अतः पूर्ववित् यह विधेयदलमे विशेषण कहा गया है, जो ग्यारह अंगोंमे निष्णात विद्वान् है, वही उत्पाद आदि चौदह पूर्वोका वेत्ता हो सकता है। यों अनायाससे सिद्ध हो गया कि पूर्वधारी ज्ञानी अवश्य द्वादशांग वेत्ता हैं।
___भावार्थ- श्रुतज्ञानीके पहिले दो शुक्लध्यान सम्भवते हैं । पांच समिति, तीन गुप्ति, इन आठ प्रवचन माताओंका श्रुतज्ञान भी जघन्यरूपेण निग्रन्थोंके अभीष्ट किया गया है। राजवात्तिकमे "संयमश्रुत" आदि सूत्रकी व्याख्या करते हुये अंतमें श्री अकलंकदेवने " जघन्येन पुलाकस्य श्रुतमाचारवस्तु, बकुशकुशीलनित्थानां श्रुतमष्ट प्रव.