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हो जाती हैं | श्रेणीपर चढनेसे पहिले श्रुतज्ञानीके धर्म्यध्यान है। तथा उपशमकक्षपक, दोनों श्रेणियों श्रुतकेवलोके शुक्लध्यान है, इस प्रकार सूत्रके व्याख्यानका आश्रय लिया जाता है, जो कि विशेष विषयोंके पृथग्भावका परिज्ञान कराने में निमित्त हो जाता है । इसी बातको युक्तिपूर्वक समझाते हुये ग्रन्थकार अग्रिम वार्त्तिकमे स्पष्ट कहे देते हैं । उसको दत्तावधान होकर सुनलो ।
तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
श्राधिरोहिणः शुके धर्म्यं पूर्वस्य तस्य हि । पूर्णकरणादीनां शुक्कारम्भकता स्थितेः ॥
२ ॥
मोहनीय कर्मकी इकईस प्रकृतियोंका उपशम या क्षय करनेके लिये श्रेणीपर चढ रहे श्रुतज्ञानीके दो शुक्लध्यान होते हैं । श्रेणी आरोहरण के पूर्ववर्ती उस द्वादशांगवेत्ता नियमसे धध्यान ही होता है । क्योंकि श्रेणी के आठमे, नौमे, दशमे अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण, आदि गुरणस्थानियोंके उस शुक्लध्यानका प्रारम्भ करना आर्ष ग्रन्थोंद्वारा व्यवस्थित हो रहा है ।
अथावशिष्टे शुक्ले कस्य भवतः इत्याह
दोनों श्रेणियों और उपशम श्रेणी चढ चुके ग्यारह में गुरणस्थानमे पृथक्त्ववितर्क वीचार तथा क्षपकणी चढ चुके बारहमें क्षीणमोह गुग्गस्थानमे दूसरे एकत्व वितर्क अवीचार शुक्लध्यान हो जानेका नियम किया, अब इसके अनन्तर यह बताओ कि बचे हुये अवशिष्ट दो परले शुक्लध्यान भला किस महात्माके हो जाते हैं ? ऐसी जिज्ञासा उठने पर करुणाब्धि सूत्रकार महर्षि इस अग्रिम सूत्रको स्पष्ट कह रहे हैं । परे केवलिनः ॥ ३८ ॥
सम्पूर्ण ज्ञानावरण कर्म जिनका नष्ट हो चुका हैं, उन तेरहमे; चौदहमे; गुणस्थानवर्त्ती केवलज्ञानी महाराजके परले दो सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और व्युपरतक्रियानिवृत्ति नामक शुक्लध्यान यथाक्रमसे होते हैं ।
केवलिशब्दसामान्यनिर्देशात्तद्वतोरुभयोर्ग्रहणं । कथमित्याह --
केवलज्ञानी आत्माको कहनेवाले केवली शब्दका इस सूत्र मे सामान्यरूपसे कथन किया गया है । इस कारण उस केवलज्ञानको धारनेवाले सयोग केवली भगवान् और अयोगकेवली शुद्धात्मा दोनोंका ग्रहण हो जाता है । किस प्रकार उन दोनोंका ग्रहण