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चौदह राजू ऊचे लोकके अधोलोक, मध्यलोक, ऊर्ध्वलोक, इन तीन भेदोंकी रचना यानी सन्निबेश लोक है । तथा लोके जा रहे स्वरूपको धार रहे लोकका संस्थान लोक है । जो कि प्रत्येक द्रव्यकी स्वकीय आकृति हैं । अर्थात् सांचेमे जो पोल हैं । वह आकाश द्रव्य है । प्रत्येक पदार्थ आकाशमें ही स्थित है । यों अखण्ड आकाश द्रव्यकी आकृति अनुसार खण्डोंकी कल्पना कर ली जाती है । मुखविवर या नासिकारन्ध्र इत्यादि सब आकाश हीं हैं। सहारनपुर, आगरा, यूरोप, अमेरिका ये सब आकाश के वस्तुभूत कल्पित खण्ड हैं। यों प्रत्येक मनुष्यमे तदाकारको धारण कर व्याप रहा लोक है । एवं उस लोकको आधार पाकर बस रहे जन ( लोकसमुदाय ) स्वरूप लोककी रचना तो अपने अपने ग्रहण किये गये शारीरिक परिमारण के आकार हैं । उपमा मानके भेद हो रहे लोकका संस्थान तो श्रेणीका घनस्वरूप एक विशेषसंख्याका आकार है । उस लोकके संस्थानका विचय यानी विचार करना संस्थानविचय है । कोश और आगम अनुसार लोक शब्द के कतिपय अर्थ हैं । उनमें से योग्य चार अर्थोका ग्रहण किया गया है । यहाँ कोई जिज्ञासु पुंछता है कि विचयशब्दका अर्थ फिर क्या है ? बताओ, ऐसी बभुत्सा उपजवेपर ग्रन्थकार इस अग्रिमवार्तिकको बोल रहे हैं ।
नवमोऽध्यायः
विचस्तत्र मीमांसा प्रमाणनयतः स्थितः । तस्मिंश्चिन्ताप्रबन्धो नुश्चिन्तान्तरनिरोधतः ॥ ६॥ युक्तं ध्यान तदाध्याय मे काग्येण प्रवृत्तितः । ध्यातुश्चिन्ताप्रबन्धस्य धर्म्यं पापव्युपायतः ॥ ७ ॥
उस ध्यानके प्रकरण में विचयका अर्थ तो प्रमाण और नयोंसे मीमांसा यानी विचार करना व्यवस्थित हो रहा है । उस विचयमें आत्माको अन्य चिन्ताओंका निरोध कर देनेसे एक अर्थ मे ही कतिपय चिन्ताओंकी रचना करनी पडती है । तिस कारण उसी ध्यान गोचर हो रहे ध्येयका चारों ओरसे अवलम्बकर एकाग्रपनेसे प्रवृत्ति होने के कारण वह ध्यान समुचित बन जाता है। ध्याता आत्माके पाप परिणतियोंका विनाश हो जाने से उक्त आज्ञाविचय आदि अनुसार की गयी चिन्ताओंकी शुभ रचनाओं को धर्म्य - ध्यान मानना युक्तिपूर्ण है, यों युक्तियोंसे आगमगम्य धर्म्यध्यानको सिद्ध कर दिखाया है :