________________
३०४ )
तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकारे
धर्मादनपेत धर्म्यं तस्योत्तमक्षमादिमत एव प्रवृत्तेः । अनुप्रेक्षाणां धम्यंध्यानसजातीयत्वात् पृथगनुपदेश इति चेन्न, ज्ञानप्रवृत्तिविकल्पात् । सर्वानुप्रेक्षाणामनित्यत्वानुचिन्तनस्य ज्ञान विशेषत्वात् ध्यानस्थानुचिन्तनं निरोधरूपत्वात् । कस्य तद्धर्म्यध्यानं स्यादित्याह
उत्तमक्षमा, उत्तममार्दव, आदि दश प्रकारके धर्मोसे अनपेत यानी सहित हो रहा धर्म्यध्यान है । धर्म शब्दसे अनपेत अर्थमे यत् प्रत्यय किया जाता है । उत्तमक्षमा आदि धर्मोंको धार रहे ही जीवके उस धर्म्यध्यानके करनेकी प्रवृत्ति होती हैं । अतः दशधर्मोसे अन्वित बने रहने के कारण तीसरे ध्यानको धर्म्य कहा गया है।
यहां कोई तर्कशील विद्यार्थी आक्षेप उठाता हैं कि अनित्यत्व आदि अनुप्रेक्षाओं को धर्म्यध्यानकी समान जातिवाला होनेसे उनका पृथक् उपदेश करना अनुचित है । बारह भावनाओंमे भी अनित्यपन, लोक, एकत्व आदिकी विचारधाराये या चिन्तनाये की जाती हैं । अतः "अनित्याशरण” इत्यादि सूत्र करके अनुप्रेक्षाओंका व्यर्थ पृथक निरूपण क्यों किया जा रहा है ? । ग्रन्थकार कहते है कि यह आक्षेप तो नहीं कर सकते हो। क्योंकि अनित्यपन आदिका चिन्तन कर रही अनुप्रेक्षाये तो मात्र ज्ञानोंकी प्रवृत्तिके विकल्प हैं, सभी अनुप्रेक्षाओं के अनुसार अनित्यपन आदि पुनः पुनः चिन्तनोंको विशेषरूपका ज्ञानपना है । हां, पीछे एकाग्र होकर चिन्तन करना स्वरूप ध्यान तो निरोधरूप है । अतः भावनायें प्रेवृत्तिरूप हैं । और ध्यान निवृत्तिस्वरूप है । जब भावना करते करते एकाग्रचिन्ता निरोध हो जायगा, तब वह धर्म्यध्यान बन जायगा । अतः सूत्रकार करके अनुप्रेक्षाओंका पृथक् उपदेश करना न्यायसंगत स्तुत्य प्रयत्न है ।
अब यहां नवीन प्रश्न उठता है कि वह धर्म्यध्यान किस जीवके उपजेगा ? बताओ। ऐसी जिज्ञासा होनेपर ग्रन्थकार अग्रिम दो वार्तिकोंको कह रहे हैं । साकल्येन विनिर्दिष्टं तत्प्रमत्ताप्रमत्तयोः । अन्तरंगतपोभेदरूपं संयतयोः स्फुटं ॥ ८ ॥ संयतासंयतस्यैकदेशेन संयतस्य तु । योग्यतामात्रतः कैश्चिद्येदु ध्यनं प्रचक्ष्यते ॥ ९ ॥
वह धर्म्यध्यान अन्तरंग तपका भेद स्वरूप ही रहा सन्ता परिपूर्ण रूपसे तो
संयमी हो रहे प्रमत्तसंयत और अप्रमत्त दो संयत मुनियोंमे स्फुट होकर पाया जा रहा