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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
स्कृष्ट आगम ग्रन्थोंसे समझ लेना चाहिये । अर्थात् कौनसे कर्मका किन किन गुणस्थानोंमें उदय है । कहाँ उदयव्युच्छित्ति है ? मनुष्य आयुका उदय चौदहमे गुणस्थान तक है । किन्तु मनुष्य आयुकी उदीरणा छठे गुणस्थानतक ही हो जाती है, कालप्राप्त हुये विना ही कर्मोंका वर्तमानमें अपक्वपाचन कर लेना उदीरणा है। यों बन्ध, बन्धव्युच्छित्ति अबन्ध और उदय, उदयव्युच्छित्ति, अनुदय, सत्त्व, सत्त्वव्युच्छित्ति, असत्त्व, उत्कर्षण, अपकर्षण, उदीरणा, निधत्ति, निकाचना, संक्रमण आदि व्यवस्थाओंको राजवात्तिक, गोम्मटसार आदि सिद्धान्त ग्रन्थोंसे समझकर कर्मफलोंका विचार करते रहना चाहिये। यह तीसरा धर्म्यध्यान हैं। तथा लोककी रचना उस लोकके अवयव हो रहे द्वीप, समुद्र, पर्वत, स्वर्ग, नरक आदि स्थानोंके स्वभाव चिंतनेमे एकाग्रचित्त लगाना चौथा संस्थानविचय नामका धगध्यान हैं । यहां कोई जिज्ञासु स्रोता प्रश्न उठाता है कि वह लोक फिर क्या है? ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तनेपर बढाकर ग्रन्थ लिखनेको उत्सुक हो रहे श्रीविद्यानन्द आचार्य महाराज अग्रिमवात्तिकको कह रहे हैं।
लोकः संस्थानभेदाद्वा स्वभावाद्वा निवेदितः । तदाधारो जनो वापि मानभेदोपि वा क्वचित् ॥ ५ ।।
संस्थान यानी रचनाके भेदसे अथवा लोकमे देखे जा रहे स्वकीयभाव व्यव. स्थासे लोकका विशेषरूपेण तीसरे, चौथे अध्यायोंमै निवेदन किया जा चुका है। " लोक्यन्ते यस्मिन् " वह लोकाकाश जिन जीवोंका आधार हो रहा है, वे जन भी लोक कहे जाते हैं । अथवा कहीं, कहीं एकमान यानी मापका प्रकार भी लोक कहा गया है। अर्थात् आठ प्रकारके उपमा प्रमाणमे लोक (श्रेणीघन) भी गिनाया गया है।
पल्लो सायर सूई पदरो य घणंगुलो य जगसेढो, लीयपदरो य लोगो उवमपमा एवमट्ठविहा"
(त्रिलोकसार ) ऐसे लोकका विचय पुनः पुनः चीता जाता हैं।
लोकस्याधोमध्योवभेदस्य संस्थान सन्निवेशः, लोक्यमानस्वभावस्य च लोकस्य संस्थानं प्रतिद्रव्यं स्वाकृतिः तदाधारस्य च जनस्य लोकस्य संस्थानं स्वीपात्तशरीरपरिमाणांकारः, मानभेदस्य च लोकस्य संख्याविशेषाकारः संस्थानं तस्य विचयः संस्थानविचयः। कः पुनर्विचय इत्याह