________________
नवमोऽध्यायः
ततश्चतुर्विधं रौद्रध्यानं समुपजायते ! पुंसोतिकृष्णलेश्यस्याविरतस्यैव तत्परं ॥ ३ ॥ तथा कापोतलेश्यस्य विरताविरतस्य च । प्रमादानामधिष्ठानं विरतस्य न जातुचित् ।। ४ ॥
तिस कारणसे सिद्ध हुआ कि वह चारों प्रकारका उत्कृष्ट रौद्रध्यान तो परमकृष्णलेश्यावाले अविरत जीवोंके ही सामग्री मिलनेपर खूब उपज जाता है। और कापोतलेश्यावाले जीवके भी उत्पन्न होता है। तथा विकथा ४, कषाय ४ इन्द्रिय ५ निद्रा १ स्नेह १ यों १५ या अस्सी (८०) प्रमादोंका अधिष्ठान हो रहा वह रौद्रध्यान कदाचित् विरताविरत नामक पांचवे गुणस्थानवाले पुरुषके भी संभव जाता है। हां, इन्द्रिय संयम और प्राण संयमको पाल रहे विरक्त संयमीके तो कदाचित् भी रौद्रध्यानकी संभावना नहीं है।
अथ प्रशस्तस्य ध्यानस्य धर्मस्य तावत्प्रतिपादनार्थमाह,
अप्रशस्त दो ध्यानोंका निरूपण हो चुका है। अब इसके पश्चात् दो प्रशस्त ध्यानोंका प्रतिपादन करना न्यायप्राप्त है । शब्द शक्ति अनुसार दो का युगपत् प्ररूपण करना अशक्य है । अतः प्रशस्तध्यानोंमें पहिले कहे गये धय॑ध्यानकी प्रतिपत्ति करानके लिये प्रथम ही सूत्रकार इस अग्रिम सूत्रका उच्चारण कर रहे हैं ।
आज्ञापायविपाकसंस्थानविचयाय धर्म्यम् ॥ ३९ ॥
आज्ञाविचयके लिये स्मृतियोंका समन्वाहार करना, अपायविचयके लिये स्मृतियोको पौनःपुन्य रूपमें उठाना, विपाकविचयके अर्थ एकाग्र होकर अनेक चिन्तायें रचना और लोकको रचनाके विषयमें अर्थ अनेक आगमोक्त रचनाओंका स्मरणपूर्वक ध्यान करना ये चार धर्म्यध्यान हैं । अर्थात् योग्य उपदेशकोंका अभाव हो जानेपर इधर कर्मोदय अनुसार श्रोताओंकी मन्दबुद्धि हो जानेसे गम्भीर सिद्धान्ततत्त्वोंको साधनेके लिये हेतु, व्याप्ति, दृष्टान्त, युक्तियोंके नहीं मिलते सन्ते सर्वज्ञप्रोक्त आगमको ही सर्वोच्च प्रमाण मानकर " इस ही प्रकार यह तत्त्व है केवलज्ञानी जिनेन्द्र महाराज अन्यथावादी नहीं हैं।" यो सूक्ष्मतत्त्वोंके गहन अर्थका एकटक अवधारण करना आज्ञाविचय है।
अथवा सूक्ष्मतत्त्वोंको स्वयं समझकर अन्य प्रतिपाद्योंके प्रति अपने जैनसिद्धांत अनुसार तर्क, नय, प्रमाण, हेतु, क्रियातिपत्ति, उदाहरणद्वारा सर्वज्ञकी आज्ञाका प्रकाश