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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
रौद्रध्यान के अनुकूल कषायों का उदय हो जाने से गृहस्थ के यह ध्यान कदाचित् पाया जाता है । केवल विशेष वक्तव्य यह है कि मिथ्यादृष्टि या सासादन सम्यग्दृष्टि अविरतों के समान वह रौद्रध्यान उस श्रावक के नरकगति, नरकगत्यानुपूर्व्यं नरकआयु, तिर्यग्गति आदि नाम कर्मों के आसत्र का निमित्तकारण नहीं हो पाता है, क्योंकि पांचवे गुणस्थानवाले के सम्यग्दर्शन गुण विद्यमान है, अतः प्रथम गुणस्थानवाले का रौद्रध्यान तो नरका, नरकगति आदिका बन्ध करायगा । दुसरे गुणस्थानवाले के तिर्यगायु, तिर्यग्गति, तिर्यग्गत्यानुपूर्व्य, आदि का बन्ध होता है. किन्तु " सम्यक्त्वं च " इस सूत्र अनुसार सम्यग्दृष्टि तिर्यञ्च या मनुष्य के वैमानिक देवायु कर्म का हो आस्रव होता हैं। हाँ, सम्यदृष्टि हो रहे देव या नारकियों के मनुष्यायु का आस्रव होता है । ट्टिमढवी जोइसिवरणभवरण सव्वइत्थीणं,
पुदिरे गहि सम्मोग सासणी गारयापुण्णे ( गोम्मटसार जी. कोड ) सम्यग्दर्शनशुद्धा नारक तिर्यङ्· नपुंसकस्त्रीत्वानि,
दुष्कुल विकृताल्पायुर्दरिद्रतां च व्रजन्ति नाप्यव्रतिकाः ।
(श्री समन्तभद्राचार्यः)
य सम्यग्दर्शन की सामर्थ्यं से श्रावक कदाचित् मात्र रौद्रध्यान कर लेने पर भी नरक नहीं जासकता है ।
संयतेपि कदाचिदस्तु रौब्रध्यानं हिंसाद्या वेशादिति चेत् तदयुक्तं, संयते तदावेशे संयमप्रच्युतेः ।
यहाँ कोई आक्षेप उठाता है कि, सकल संयमी मे भी कदाचित् रौद्रध्यान होजाओ, रौद्रध्यान के समय जैसे अणुव्रत रक्षित रहे आते हैं, उसी प्रकार संयम भी ध्यान वे साथ अक्षुण्ण बना रहसकता है । जैसे कि संज्वलन कषायों के उदय होने पर भी संयम प्रतिष्ठित रहता है, तब तो हिंसादिक का आवेश होजाने से मुनि के भी
ध्यान होजाओ । ग्रन्थकार कहते है कि यह आक्षेप तो सर्वथा युक्तियों से रीना है, क्योंकि जैन सिद्धांत की वसंत वायु किधर को बह रही हैं, इसका आक्षेपकर्ता को स्वल्प भी ज्ञान नहीं है। जोकि ज्ञान उक्त रोद्रध्यान के लक्षण सूत्र अनुसार बालक को भी होजाता है। हिंसा आदि खोटे विचारों से रौद्रध्यान की उत्पत्ति कही गयी है । संयमी मे उन हिंसा आदिक का आवेश होजाने पर संयम की सर्वांगच्युति होजाती है, स्वल्प भी ध्यान का प्रसंग आजानेपर आत्मा मे संयम नहीं ठहर पाता है, जैसे कि प्रचण्ड अग्नि के आजानेपर पारा या शीत दूर होजाता है ।