________________
२९८)
तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
करने के लिये स्मतियोंका समन्वाहार करना प्रथम घHध्यान हैं। जन्मान्धके समान मिथ्यादृष्टि जीवोंको श्रेष्ठ मार्गका परिज्ञान नहीं ह, ये मिथ्यादृष्टि सुमार्गसे बहुत दूर हट रहा है,
अथवा मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्रोंसे ये प्राणी किस प्रकार छुड ये जावे इस प्रकार अनेक स्यलियोंको केन्द्रित करना अपायविचय नामक दूसरा धर्म्यध्यान हैं।
____ ज्ञानावरण आदि कर्मों का द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भाव अनुसार फलके अनुसार फलके अनुभव करनेमे एकाग्र मन लगाना विपाकविचय है।
लोककी रचना, वहां वहां जीवोंका निवास इत्यादि चिन्तनाओंके लिये स्मृतियोंपर स्मृतियां उठाते रहना लोक विचय है। यों ये उत्तम क्षमा आदि दशधर्मसे अनपेत हो रहे धर्माध्यान हैं।
विचितिविवेको विचारणा विचयः । तदपेक्षया आज्ञादीनां कर्मनिर्देशः। अधिकारात् स्मृतिसमन्वाहारसम्बन्धः, आज्ञा विचयायस्मृतिसमन्वाहार इत्यादि । तदेवं
' वि उपसर्ग पूर्वक 'चित्र' 'चयने' धातुसे भावमें अच् प्रत्यय कर विचय शब्द बना लिया जाता है । विचय करना यानी विवेक या अनेक विचारणायें विचय है । " कर्त. कर्मणोः कृति षष्ठी" उस कृदन्त क्रिया शब्द बन गये विचयकी अपेक्षासे आज्ञा, विपाक आदिकोंको षष्ठी विभक्तिका प्रयोग कर कममें कथन कर दिया जाय । ध्यानके लक्षणम विशेष्य हो रहे स्मति समन्वाहार पदका अधिकार चला आ रहा होनेसे उक्त चारों आज्ञाविचर्य आदिम परलो ओर सम्बन्ध कर दिया जाय, तब तो आजाको जो विचारणा उसके लिये स्मति समन्वाहार करना पहिला धर्म्यध्यान है। इसी प्रकार चारों धर्माध्यानोंमें सूत्र अर्थ लगा लिया जाय, वह वाक्यार्थ इस प्रकार हो जायगा, उसको अग्रिमवात्तिकमें सुनिये ।।
आज्ञादिविचयायोक्तं धयं ध्यानं चतुर्विध । अार्तरोद्रपरित्यक्तेः कार्य चिन्तास्वभावकं ॥ १॥ तंत्राज्ञा द्विविधा हेतुादेतरविकल्पतः । . सर्वज्ञस्य विनेयान्तः करणायत्तवृत्तितः ॥ २ ॥