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- नवमोऽध्यायः
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परिणामों के साथ आर्तध्यान चारों ओर से परिग्रह इकट्ठ करने के कारण होजाते हैं। धर्म्य कार्यों मे मनोवृत्ति लगाने का परित्याग करानेवाले हैं और कषायों के अभिप्रायों को बढानेवाले हैं, इन आर्तध्यानों का विपाक भविष्य मे कडुआ है यानी अनेक महान दुःखों के असाता अनुसार प्रापक है तथा तिर्यञ्च गति के जीवो मे नियत उत्पत्ति कराने के कारण आतध्यान है।
केषां पुनस्तत्स्यादित्याह :
वह आर्तध्यान फिर किन जीवों के सम्भवेगा ? ऐसी नम्न शिष्य की जिज्ञासा प्रवर्तने पर सूत्रकार महाराज इस अग्रिम सूत्र को कह रहे हैं।
तदविरतदेशविरतप्रमत्त संयतानाम् ॥३४॥ वह पूर्वोक्त आर्तध्यान तो इन्द्रियसंयम और प्राणिसंयम को नहीं धार रहे मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, तथा अविरत सम्यग्दृष्टि इन चार अविरतों के एवं त्रसवधविरक्त,स्थावरवधाविरक्त ऐसे देशविरत नामक पांचवे गुणस्थानवाले जीव के किञ्च छठे गुणस्थानवाले, विरत,प्रमत्तसंयत मुनि के होजाता है,पहले गुणस्थान से लेकर छठे गुणस्थानतक संक्लिष्ट जीवों मे आर्तध्यान उत्पन्न अर्थात् होजाता है। सर्वदा कोई न कोई ध्यान रहे हो ऐसा कोई नियम नहीं है, जब कभी चित्तवृतियों को यहां वहां से हटाकर कुछ देर तक एकाग्र केन्द्रित कर दिया जाता है, तभी ध्यान हुआ समझा जायगा, अन्यसमयों में मात्र ज्ञान की प्रवृत्तियों है ।
अविरतादयो व्याख्याताः। कदाचित्प्राच्यमार्तध्यानत्रयं प्रमत्ताना, तेषां निदानस्यासंभवात् । तत्संभवे प्रमत्तसंयतत्वविघातात् । कुतस्तेषां तद्भवेदित्याह -
पहले गुणस्थान से लेकर चौथे गुणस्थानतक के अविरतों का व्याख्यान किया जाचुका है। नौम अध्याय के प्रथमसूत्र का विवरण करते हुये ग्रन्थकारचे गुणस्थानों की व्याख्या कर दी है, पूर्ववर्ती तीन आर्तध्यान कभी कभी प्रमाद की विशेष तीव्रता होजाने से उपजजाते हैं, हॉ, चौथे आर्तध्यान निदान की उन प्रमत्तसंयमियों के सम्भावना नहीं है। संसारी भोगों की प्रबल आकांक्षाये अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कषायों के उदय होनेपर होती है , यदि छठे गुणस्थान मे उस निदान का उपजना माना जायगा तो प्रमादोपेत संयमीपन का विघात होजायगा, भोगों की अकांक्षा करवैपर जीव संयम से च्युत होजाता है। यहां कोई तर्कशील विद्यार्थी तर्क उठाता है कि, उन छठे गुणस्थानतक के जीवों के वह आर्तध्यान किस कारण से