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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
होसकेगा ? ऊपर के सातवे आदि गुणस्थानों मे आर्तध्यान क्यों नही उपजता है ? यदि नहीं उपजता है तो पहले आदि छह गुणस्थानों में भी नहीं उपजना चाहिये, ऐसा तर्क उपस्थित होने पर ग्रन्थकार इस अगिली वार्तिक को समाधानार्थ कर रहे हैं ।
तत्स्यादविरतादीनां त्रयाणां तन्निमित्ततः।
नाप्रमत्तादिषु क्षीणतन्निमित्तेषु जातुचित् ॥१॥
वह आर्तध्यान (पक्ष) अविरत आदिक तीन प्रकार जीवों के ही सम्भवता हैं । (साध्यदल) उनके उस आर्तध्यान के उपजानेवाले निमित्तों का सद्भाव होने से (हेतु) सातमे अप्रमत्त, आठमै अपूर्वकरण आदि गुणस्थानवालों मे कदाचित् भी वह आर्तध्यान नहीं उपजता है, (प्रनिज्ञा) क्योंकि वहाँ उस आ ध्यान के निमित्त कारण होरहे कषायों के तीव्र उदय का नाश होचुका है, (हेतु) इस युक्ति से आर्तध्यान की अन्यून अनतिरिक्तरूपसे छठे गुणस्थानतक ही सम्भावना है, यही प्रमेय इस सूत्र मे कहा गया है। .. अथ रौद्रं ध्यानं कुतः कस्य किस्वरूपमुच्यते ? इत्याह :
आर्तध्यान का प्रकरण समाप्त हुआ। संज्ञा, लक्षण, हेतु और स्वामी की व्याख्या अनुसार आर्तध्यान को समझ लिया, अब यह बताओ कि रौद्रध्यान क्या है ? दूसरा अप्रशस्त रौद्रध्यान किन कारणों से उपजता हैं ? रौद्रध्यान किन जीवों के होता है ? उसका स्वरूप क्या कहा जाता है ? ऐसी जिज्ञासायें उठने पर कृपाशील उमास्वामी महाराज इस वक्ष्यमाण सूत्र को कह रहे हैं । हिंसानतस्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रमविरतदेशविरतयोः ॥३५॥
हिंसाकरना, झूठबोलना, चोरीकरना, भोग्य विषयों के संरक्षण करना, इन चार बुरे विचारों से जोव के रौद्रध्यान उपजता है, जोकि चौथे गुणस्थानतक के अविरत जीवों मे और देशविरत गृहस्थों के पाया जाता है। अर्थात् हिंसा करने अनुसार चित्त में स्मृतियों का समन्वाहार करना, झूठ बोलने के अनुकूल अनेक स्मृतियों को एकाग्र उठाना, चोरी के प्रसंग मे अनेक चिन्ताओं की रचना करना, वित्तसंरक्षण के उपयोगी अनेक दुर्सान उठाना ये चार रौद्र ध्यान हैं । ये पांचवे गुणस्थानतक के जीवो मे कदाचित् होरहे सम्भवते हैं ।