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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
चारो आर्तध्यान उपज जाते हैं अर्थात् जीव की मीललेश्या अथवा कापोतलेश्या परिणति होजाने पर चारो ध्यानों की उत्पत्ति सम्भवती है। गोम्मटसार मे लिखा है कि मन्द बुद्धिविहीरो, गिव्विरणारणीय विषयलोलो य । माणी मायी य तहा आलस्सो चेव भेज्जो य ॥५० ६ ॥ णिद्दाचरण बहुलो धरणधण्णो होदि तिव्वण्णा य लक्खणमेयं भरिणयं समासदो गोललेस्सस्स ।। ५१०॥ रूसइ रिंगes अण्णे दूसइ बहुसो य सोयभयबहुलो । असुयइ परिभवइ परं पसंसये अप्पयं बहुसो ॥ ५११ ।। रण य पत्तियइ परं सो अपागं यिव परंपि मण्णतो, भूसइ अभियुक्तो ण य जागइ हारिणवढि वा ॥ ५१२ ॥ मरणं पत्त्थेइ रणे देइ सुबहुगं विथुव्वमाणो दु,
रण गराइ कज्जाकज्जं लक्खणमेयं तु काउस्स ॥ ५९३ ॥ गोम्मटसार जीवकांड
बुद्धिहीनता, आलस्य, आहारादिसंज्ञाओं की तीव्रलालसा, विषय लोलुपता इत्यादिक चिन्ह नीललेश्यावाले के हैं । अपनो, प्रशंसा चाहना, स्तुति करनेवालोंपर तुष्ट होना, कार्य अकार्य, नहीं गिनना इत्यादिक लक्षण कपोतलेश्यावाले जीव के है । अतः उक्त दो लेश्याओं के असंख्यात भेदों मे से कतिपय भेदों अनुसार चार आर्त्तध्यान उपज बैठते हैं। तथा अज्ञानभावसे भी आर्त्तध्यानों की उत्पत्ति है एवं तिसप्रकार के अन्य भी किसी किसो आत्मीयविभाव परिणाम से आर्त्तध्यान कर लिया जाता है । पापप्रयोगं निःशेषदोषाधिष्ठानमाकुलं । भोगप्रसंगनानात्मसंकल्पासंगकारणं ॥३॥ धर्माशय परित्यागि कषायाशयवर्धनं । विपाककटु तियेतु समुद्भवनिबन्धनं ॥४॥
ये चारों आर्त्तध्यान पाप मैं प्रयोग करने से उपजते है और पाप कर्मोंका खूब योग कराते तब आत्मीय पुरुषार्थं से उपजते हैं, सम्पूर्ण दोषों के अधिकरण आर्त्तध्यान हैं । आर्त्तध्यान करते समय आत्मा मे बडी आकुलता उपजती रहती है । भोगों का
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प्रसंग बनाये रखना, अनेक अनात्मीय पदार्थों मे आत्मपने का संकल्प करना ऐसे.