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नवमोऽध्यायः
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निदानविषयः स्मृतिसमन्वाहारः निदानं। विपरीतं मनोजस्येत्येव सिद्धमिति चेन्नाप्राप्तपूर्वविषयत्वाग्निदानस्य । कि हेतुकं तदित्याह -
निदान के विषयों मे होरहा जो स्मृतियों का पुनःपुनः अभ्यावृत्त होकर उपजना है वह निदान है अथवा "विषयत्वं सप्तम्यर्थः " निदान मे स्मृतियों का एकाग्रे उठते रहना निदान नामका आर्तध्यान है। यहाँ कोई आक्षेप उठाते है कि यह चौथा आर्त्तध्यान तो दूसरे आर्तध्यान मे ही गर्भित होजायगा जब कि मनोज्ञ पदार्थ का विपरीत अर्थात मनोज्ञ विषय का संयोग करने के निये पुनः चिन्तायें रचना दसरा आर्त है. निदान मे भी इष्ट विषयों के संयोग होजाने की चिन्तनाये की जाती है। अतः दसरे आर्तध्यान से ही चौथे आर्तध्यान का ग्रहण होजाना सिद्ध हैं। ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नही कहना, कारण कि जो विषय अबतक अनेक पर्यायों मे प्राप्त नहीं हये है. उन सुखावह भोग विषयों को प्राप्ति के लिये निदान किया जाता है। भविष्य संख की प्राप्ति मे एकाग्र लटक रहे मन का अपूर्व पदार्थ की प्रार्थना मे अभिमुख बने रहने से निदान होता है और दूसरा आर्तध्यान तो कुछ काल तक भोग लिये गये प्राप्त होचुके विषयों का दैवदुर्विपाक अनुसार वियोग होजानेपर पुनः उनका संयोग होजाने की इच्छा अनुसार प्रवर्तता है । यों दूसरे और चौथे आर्तध्यान में अन्तर है । अब कोई जिज्ञास पंछ रहा हैं कि वह निदान नामक चौथा आध्यान किस पदार्थ को हेतु मानकर उपजता है ? बताओ। ऐसे निर्णयकी इच्छो प्रवर्तने पर आचार्य महाराज अग्रिम वार्तिको को कहकर रचते हैं।
निंदानं चेति वाक्येन तीव्रमोहनिबन्धनं। चतुर्थं ध्यानमित्या चतुर्विधमुदाहृतं ॥१॥ नीलो लेश्यां समासृत्य कापोती वा समुद्भवेत्
तदज्ञानात् कुतोप्यात्मपरिणामात्तथाविधात् ॥२॥
सूत्रकार महाराज वे " निदानं च, इस सूत्र वाक्य करके चौथा आध्यान लक्षणित किया है जो कि वर्तमान भोग्यों मे अरति और भविष्य उत्कट भोगों मे गाढ अनुराग यों मोह के तीव्र उदय को कारण मानकर उपज बैठता है। इसप्रकार उक्त चार सूत्रों में चार प्रकार आर्तध्यान का उदाहरण की मुद्रा करके विरूपण करदियरा गया है। नीललेश्या अथवा कपोतलेश्या के परिणामों का भला आसरा पाकर