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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
स्मृतिसमन्वाहारस्तृतीयमातमित्यभिसम्बन्धः। प्रकरणात्दुःखवेदनासम्प्रत्ययः। किंनिबन्धनं तदित्याह:
स्मृतिसमन्वाहारः, और आर्त पद को अनुवृत्तिकर तथा तृतीय पद का उपकार कर परली ओर सम्बन्ध कर दिया जाय। अर्थात् शारीरिक या मानसिक कष्ट वेदना का स्मृति समन्वाहार करना तीसरा आर्तध्यान है । वेदना शब्द यद्यपि सुखानुभव और दुःखानुभव दोनो मे समानरूप से प्रवर्तता है तथापि यहां आर्तध्यान का प्रकरण होने से दुःखवेदना को समीचीन प्रतीति होजाती है, दुःखों को संक्लेश पूर्वक सहते समय तीव्र आर्त्तध्यान होजाता हैं । यहाँ पूर्ववत् प्रश्न उठाया जारहा है कि, वह तीसरा आर्तध्यान किसको कारण मानकर उपज बैठता है ? बनाओ। ऐसी जिज्ञासा उपस्थित होनेपर ग्रंथकार समाधानार्थ अग्रिमवार्तिक को कह रहे हैं।
असवद्योदयोपात्त-द्वेषकारणमीरित ।
तृतीयं वेदनायाश्चेत्युक्तं सूत्रेण तत्वतः ॥१॥ . "वेदनायाश्च" इस ऐसे सूत्र करके दास्तविकरूपसे जो तीसरा आर्तध्यान कहा गया है वह असाता वेदनीय कर्म के उदय अनुसार ग्रहण होचुके द्वेष को कारण मानकर उपजा कह दिया गया समझो। भावार्थ - जैसे अनिष्टसंयोग और इष्टवियोग की अशुभ वेदनाओं अनुसार द्वेष, राग हेतुक उक्त दो आर्तध्यान उपज जाते हैं उसी प्रकार अनुराग मिश्रित कामुकता, पुनःपुनः विषयसुखगृद्धि आदि के लिये शारीरिक दुःखो मे द्वष रखते हुये जीव के तीसरा आर्तध्यान उपजता है ।
चतुर्थ किमित्याह -
तीन आर्तध्यानों का निरूपण किया सो समझ लिया अब यह. बताओ कि चौथा आर्त्तव्यान फिर क्या है ? ऐसी जिज्ञासा उठनेपर सूत्रकार महाराज अग्रिम सूत्र की रचना कर प्रतिपादन करते हैं।
___ निदानं च ॥३३॥ भोगों की आकाक्षा में आतुर होरहें जीव का भविष्य विषयों की प्राप्ति के लिये एकाग्र मनयोग लगाते हुये संकल्प, विकल्पपूर्वक अनेक स्मृतियों का समन्वाहार करना यह निदान नामक चौथा आर्तध्यान है। " भोगाकांक्षया नियतं चित्तं दीयते यस्मिन् येन वा तन्निदानं " यह निदानशब्द की निरुक्ति हैं।