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नवमोध्यायः
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होरहे अवसरपर न तो उसका भविष्य मे वियोग होजाना संभावित है और वर्तमान में स्वल्प भी उस का या उसके सदृश का अभाव होजाना संभवनीय नहीं हैं । इसी प्रकार विप्रयोग शब्द में भी प्रशब्द पड़ा हुआ है, जो कि वर्तमान में प्रतियोगी के स्वल्प भी सद्भाव को और भविष्य मे प्रतियोगी (यस्य वियोगः स प्रतियोगी) के होजाने को सर्वथा रोके हुये हैं। सूत्रकार का एक एक अक्षर अनन्त प्रमेय अर्थ को लाद रहा है। यहां कोई पूंछ रहा है कि उस दूसरे आर्तध्यान का जन्म किस कारण होता है? बताओ। ऐसी जिज्ञासा उठनेपर ग्रन्थकार अग्रिम वार्तिक को कह रहे हैं।
विपरीतं मनोज्ञस्टोत्यादिसत्रेण निश्चितं ।
द्वितीयमनुरागोत्थमार्तध्यानमसत्फलं ॥१॥
इस सूत्र मे स्मृति समन्वाहार पद को पूर्वसूत्र से अनुवृत्ति की जाती है, विपरीतं पद पड़ा हुआ है । अतः सूत्र का शरीर ऐसा बनगया कि, "मनोज्ञस्य विप्रयोगे तसंप्रयोगाय स्मृतिसमन्वाहारः" तब तो सूत्रकार के " विपरीतं मनोज्ञस्य विप्रयोगे" इत्यादि सूत्र करके यह सिद्धांत निर्णीत हुआ कि दूसरा आर्तध्यान प्रकट अनुराग से उत्पन्न होता है और उसका फल दुष्कर्मों का बंधना तिर्यञ्च गति मे लेजाना आदिक अप्रशस्त (बहुतबुरा) है । भावार्थ - पहिला आर्तध्यान तो तीव्र दोष से उपजता है, और दूसरे आर्तध्यान की उत्पत्ति गाढ अनुराग से है यों इन दोनो आर्तध्यानों की अवस्था में तीव्रराग द्वेषतुहेक अशुभ कर्मों का आस्रव होता रहता है।
तृतीयं किमार्त्तमित्याह :
तीसरा आर्तध्यान फिर क्या है ? ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तने पर सूत्रकार महाराज इस अग्रिम सूत्र को स्पष्ट प्रतिपादनकर कहरहें हैं।
वेदनायाश्च ॥३२॥ तीव्र दुःखवेदनाके अवसरपर उसके वियोग होजाने के लिये जो बार बार स्मृतियें उठाकर चिन्ताये करते रहना है वह तीसरा आर्तध्यान है । अर्थात् वात व्याधि, शल, पित्तज्वर आदि शारीरिकवेदना या अपमान, टोटा, परीक्षा में अनुत्तीर्ण होजाना, आजीविका नहीं लगना, आदि मानसिक वेदना का प्रसंग मिलजानेपर उसका प्रतीकार करने मे उद्यमी होरहे अनवस्थित चित्तवाले अधीर जीव का अनेक चिन्ताओं मे एकटक मग्न बने रहना तीसरा आर्तध्यान है ।