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तत्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
हेतु मानकर उपजा पहिला आर्त्तध्यान इस " आर्तममनोज्ञस्य संप्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्वाहारः " इस सूत्र द्वारा कह दिया गया है ।
द्वितीयं किं स्वरूपमित्याह
यहाँ विनीत शिष्य जिज्ञासा करता है कि आर्त्तध्यान का दूसरा भेद फिर किस स्वरूप को धारण करता है, यानी दूसरे आर्त्तध्यान का लक्षण क्या है ? बताओ, ऐसा प्रश्न उतरनेपर सूत्रकार महाराज अग्रिम सूत्र का व्यक्त निरूपण कररहे है । विपरीतं मनोज्ञस्य || ३१ ॥
पूर्वोक्त से विपरीत होना अर्थात् मनोज्ञ यानी इष्ट हो रहे अपने पुत्र, स्त्री, धन, बन्धु, सुयश, आदि का वियोग हो जाने पर उनका संयोग होजाने के लिये संकल्प कर पुनः पुनः स्मृतियों की अभ्यावृत्ति करते रहना दूसरा आध्यान है ।
उक्तविपर्ययाद्विपरीतं मनोज्ञस्य विप्रयोगे तत्सम्प्रयोगाय स्मृतिसमन्वाहारो द्वितीयमार्त्तमित्यर्थः । प्रियस्य मनोज्ञस्य विप्रयोगो विश्लेषस्तस्मिन् सति तत्संप्रयोगाय पुनः पुनश्चिन्ता प्रबन्धः । सा मे प्रिया कथं सप्रयोगिनी स्यादिति प्रबन्धेन चिन्तनमार्त्तध्यानमप्रशस्तमिति सूत्रकारस्याभिप्रायः । किं जन्म तदित्याह
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पहिले कहे गये स्वरूप का विपर्यय होजाने से यह मनोज्ञ का दूसरा आर्त्तध्यान उससे विपरीत है, इसका अर्थ यह हुआ कि, अपने मनोनुकूल ज्ञात होकर अभीष्ट होरहैं पुत्र, मित्र, गुरु, माता, पिता, स्वामी, आदि का प्रकृष्ट वियोग होजाने पर उनका या संयोग होजाने के लिये स्मृतियों का धक्का पेल बार बार उठाते रहना आर्तध्यान का द्वितीय प्रकार है । पूर्व, अपर, सम्बन्ध लगादेने से सूत्रकार महोदय का अभिप्राय यह प्रतीत होरहा है कि, अत्यन्त प्रिय होरहे मनों मे पदार्थ का जो प्रकृष्ट वियोग यानी विश्लेष ( सम्बंध विच्छेद) होजाता है, उस के होजाने पर पुनः पुनः उस प्रियपदार्थ का उत्तम संयोग होजाने के लिये मन मे अनेक चिन्ताओं की रचना करता रहता है। आर्त्तध्यानी जीव विचारता है कि, वह मेरी अतीव प्रिय होरही बस्तु (स्त्री, सन्तान आदि ) किस प्रकार मुझसे अच्छा सम्बन्ध करनेवाली होजाय यों उत्तर उत्तर विचारों की रचना करके चिन्ताएँ करते रहना दूसरा आर्त्त है, यह ध्यान प्रशंस प्राप्त नहीं है । सप्रयोग शद्व मे सम और प्र ये दो उपसर्ग पड़े हुये है । सम का अर्थ अच्छा है । स्वसमान कालीन तत्सदृशसमानाधिकरणत्व है और प्र का अर्थ स्वसमान कालीन तत्प्रागभावानधिकरणत्व है, इसका ध्वनी वृत्ति से यह अर्थ निकला कि, इष्ट का संयो