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नवमोऽध्यायः
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किया गया है, तिसस्वप्रकृति को अनिष्ट
किसी भी प्रकार से
समन्वाहार है वह स्मृतिसमन्वाहार है, यह षष्ठीतत्पुरुष समास कारण इस सूत्र द्वारा यह अर्थ प्रकाशित होजाता है कि, हो रहे अमनोज्ञ पदार्थ का प्रसंग आपड़नेपर वह पदार्थ मेरे पास नाम मात्र भी नहीं होवे इसप्रकार संकल्प विकल्प करते हुये अनेक चिन्ताओं को रचना करते रहना आर्त्तध्यान है । यहाँ कोई पूछता है कि, उन ध्यानों मे पहिले आर्त्तध्यान का हेतु क्या है ? यानी किसको हेतु मानकर वह आर्त्तध्यान उपज बैठता है, ऐसों बुभुत्सा प्रवर्तने पर ग्रन्थकार अग्रिमवार्तिक का प्रतिपादन करते है ।
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तं चतुर्विधं तत्र संक्लेशां गतयोदितं । आर्तमित्यादिसूत्रेण प्रथमं द्वेषहेतुकम् ॥१॥
उन ध्यानों में संक्लेश का अंग होने से पहिला आर्त्तध्यान चार प्रकार का है । तिन में पहिला आर्तध्यान तो द्वेष को हेतु मानकर उपजता संता सूत्रकारने "आत्तममनोज्ञस्य" इत्यादि सूत्र करके कह दिया है । अर्थात् परले दो ध्यान विशुद्धि के अंग है, यह आध्यान संक्लेश का कार्य है और संक्लेश बढाने का ही कारण है । अतः संक्लेशांग होने से ही इस ध्यान को आर्त कहा गया है ।
मिथ्यादर्शनाविरतिपरिणामसंक्लेशः तत् स्वरूपं तत्कारणकं तत्फलं च संक्लेशांगं, तस्य भावः संक्लेशांगता तयार्त्तध्यानमुदितं । तच्चतुविधं स्वरूपभेदात् । तत्र प्रथममार्त्तमित्यादिसूत्रेण द्वेषहेतुकं सूत्रितं ।
मिथ्यादर्शन परिणाम और अविरति परिणतियां तथा प्रमाद परिणमन ये सब जीव के संक्लेश है, जो पदार्थ संक्लेश स्वरूप है, वह संक्लेश अंग है, और जिस का कारण वह संक्लेश ( बहुब्रीहि समास ) है, वह भो पदार्थ संक्लेश अंग हैं, और जिस का फल वह संक्लेश हैं, वह भी संक्लेश का अंग है । यों संक्लेश और संक्लेश का कार्य तथा संक्लेश का कारण होरहे सब संक्लेश का अंग कहे जाते है ।
"विशुद्धियांगं चेत् स्वपरस्थं सुखासुखं ।
पुण्यपापास्रवो युक्तो न चेद्वपर्यस्तवातः "
इस देवगम की कारिका का व्याख्यान करते समय ग्रन्थकारने अष्टसहस्री ग्रन्थ मे विशुद्धि अंग और संक्लेश अंग का बढिया विवरण कर दिया है । उस संक्लेश अंग का जो भाव है वह संक्लेश अंगता है, उस संक्लेश अंगपने करके आर्त्तध्यान चार प्रकार का कहा गया है । अपने अपने लक्षण के भेद से वह आर्त्तध्यान चार प्रकार है, उन चारों मे द्वेष को