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नवमोध्यायः
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धर्म्यध्यान और शुक्ल ध्यान तो मोक्ष के कारण है, तथा पूर्ववर्ती दो आतं, रोद्र ध्यानों को संसार का कारणपना प्राप्त होगया है ? संभव है कि किसी पापीजीव को मन मे यह खटका रहे कि सूत्रकार महाराजने पूर्व मे दो अच्छे ध्यान और पीछे दो बुरो ध्यान कह दिये हों। ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तने पर ग्रन्थकार इस अग्रिम वार्तिक को कह रहे हैं।
मोक्षहेतू परे ध्याने पूर्वे संसारकारणे।
इति सामर्थ्यतः सिद्धं विमोहत्वेतरत्वतः ॥२६॥ परले दो ध्यान मोक्ष के कारण हैं । यों सूत्र मे कण्ठोक्त कह देने पर विना कहे ही सामर्थ्य से यह सिद्ध होजाता है कि, पूर्ववर्ती दो आर्त्त, रौद्रध्यान संसार के कारण है । क्योंकि, मोक्ष के हेतु होरहे दो ध्यानों में मोहरहितपना है और पूर्ववर्ती दो ध्यानों मे विमोहत्व से इतर यानी मोहसहितपना है । इसकारण विमोहत्व हेतु से परले दो ध्यानों मे मोक्ष का हेतुपना साध दिया जाता है और पूर्ववर्ती दो ध्यानों मे समोहत्त्व हेतुसे अर्थापत्ति प्रमाणद्वारा संसार का कारणपना सिद्ध होजाता है।
कथं धम्यस्य विमोहत्वमिति चेत्, मोहप्रकर्षाभावादिति प्रत्येयं । सामर्थ्यात परयोर्मोक्षहेतुत्ववचनात् पूर्वयोः संसारहेतुत्वसिद्धिस्तयोर्मोहप्रकर्षयोगात् ।।
यहां कोई प्रश्न उठाता है कि शुक्लध्यान भले ही मोक्ष का कारण बन जाओ उसका मोहरहितपना समुचित है, किन्तु धर्म्य ध्यान को मोहरहितपना किस प्रकार साध सकोगे ? दश मै गुणस्थान तक मोहकर्म का उदय है, और धर्म्य ध्यान तो चौथे से सातमे गुणस्थान तक ही पाया जाता है । चौथे, पांचवे, छठे, गुणस्थानों मे मोहनीय कर्म माने गये संज्वलन कषाय का तीव्र उदय है, तब तो पक्ष के एकदेश मे हेत के नहों ठहर ने के कारण आपका विमोहत्व हेतु भागासिद्ध हेत्वाभास है। "पक्षतावच्छेदक सामानाधिकरण्येन हेत्वभावो भागासिद्धिः" यो प्रश्न उठने पर तो ग्रन्थकार समाधान करते हैं कि, धर्म्य ध्यान वाले चौथे, पांचवे,छठे, सातवे गुणस्थानों में मोहनीय कर्म के उदय का प्रकर्ष नहीं है । अप्रत्याख्यानावरण का चौथे मे उदय है, प्रत्याख्यानावरण का पांचवे मे उदय है, छठे मे संज्वलन का तीव्र उदय है, फिर भी उक्त कषायों के तीव्रतर और तीव्रतम प्रकृष्ट उदय नहीं है । कषायों का प्रकृष्ट उदय होजाने पर उन गुणस्थानों में धर्म्य ध्यान नही जम सकता है, यों प्रतिति अनुसार विश्वास कर लेना चाहिये । परले ध्यानों को मोक्ष का हेतुपना इस सूत्र मे निरूपण कर देने से परिशेष