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________________ तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे २८४) सूत्रसे ध्वनित होजाती है कि, पूर्ववर्ती आर्त, रौद्र ध्यान दोनों संसार के संसार के कारण होनेसे ही आर्त्त, रौद्र को प्रशस्तपना नहीं है । हां परले शुक्लध्यान को प्रशस्तपना है, क्योंकि ये दोनो मोक्ष के कारण है । शंकाकार का पूरा समाधान कर दिया गया है । कारण है । धर्म्य और यहाँतक तटस्थ यहाँ कोई आशंका करता है कि पूर्ववर्ती आर्त्त, रौद्रों से तो अव्यवहित परे हो रहे अकेले धर्म्यध्यान को ही परपना प्राप्त हैं। शुक्लध्यान तो धर्मध्यान के भी परली ओर है, अतः परिशेषन्यायसे कह गये पूर्व दो ध्यानों से साक्षात् परे धर्म्यध्यान हीं एक हुआ, आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं मान बैठना क्योंकि व्यवधान पड़े हुये पदार्थ में भी पर शब्द का प्रयोग होजाता है, जैसे कि पटना से मथुरा नगरी परे है, आगरा से सम्मेद शिखर पर है, यहाँ मध्य मे, देशों, नगरों और नदो पर्वतों का व्यवधान पडा हुआ है, फिर भी पर शद्व कहा गया है । एक बात यह भी है कि, परे यह शब्द द्विवचन विभक्ति का रूप कहा गया है, अतः परली और के दो यों कथन करने से गौण हो रहे दूसरे की भी समीचीन प्रतीति होजाती है । अथवा यहाँ यों भी शंका उठाई जासकती है कि उक्त चारो ध्यानों मे परपना शुक्ल ध्यान मे ही सुघटित है, चाहे लाखो, करोंडो, असंख्य भी पदार्थ क्यों न हों परली छोर का एक ही होगा दो नहीं, विषमसंख्या वालों का बीच एक हो सकता है, समसंख्यावालों का ठीक मध्य दो होता हैं, समचतुरस्र, या सम आयतचतुरस्र, संख्यावाले विन्यस्त पदार्थों का मध्यम चार होगा। हाँ, समघन रचित हुयी संख्यावाली ढेर वस्तु ओं का ठीक बहुमध्यदेश आठ होता हैं । मध्यदेश के विभाग का अब कोई विकल्प शेष नहीं हैं । किन्तु पूर्ववर्त्ती और उत्तरवर्त्ती पदार्थ एक ही होसकता है। सवा डेड, भी नहीं यों शुक्ल ध्यान को पर कहना ठीक है धर्म्य को परपना कथमपि युक्त नहीं है। ग्रन्थकार कहते हैं कि इस आक्षेप का उत्तर भी वही हैं कि पर के निकटवर्ती को भी परपना उपचारसे कह दिया जाता है। मान्य पुरुषों के साथ आये हुये हलके मनुष्यों का भी वैसा ही आदर किया जाता है । तथा द्विवचनान्तपद का प्रयोग कर देने से परले दो ध्यान ही पकड़े जाते है । एक कितना ही वडा राजा, पण्डित, चक्रवर्ती तीर्थंकरमहाराज, भी हो वह एक ही दो नहीं है । दो कह देने पर प्रधान एक को 1 भो दूसरे गौरण का साहित्य प्राप्त करना होगा । पुनः यहां कोई प्रश्न उठाता है कि क्या कारण है कि परली ओर कहे गये
SR No.090501
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 7
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1980
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size15 MB
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