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नवमोऽध्यायः
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निर्विकल्पक सुनयों को पुरुषार्थद्वारा उपजाता है, उतना ही शोघ्र वह कर्मों का स्थिति अनुभागखंडन कर डालता है।
यों संक्षेप में यह कहना है कि, चाहे कोई भी ज्ञान तो ध्यान नहीं है, किन्तु अव्यग्र ज्ञान धारा या दुर्नय, सुनय, एवं अन्य एकाग्रश्रुतज्ञान ध्यान का स्वरूप धर लेते हैं। योगी या ध्यानी पुरुष इसका और भी सूक्ष्म विचार कर सकते हैं, इस सूत्र के एक एक अक्षर मे अपरिमित प्रमेय भरा पडा है । यहाँ व्यग्रताको निवृत्ति के लिए मात्र ज्ञान को हो ध्यान होजाने का निषेध कर दिया है ।
चिन्तानिरोधग्रहणं तत्स्वाभाव्यप्रदर्शनार्थ तत एवं ज्ञानवलक्षण्यं, अन्यथास्य कथं चिन्ता न स्यात् ।
इस सूत्र में "चिन्तानिरोधः" पद का ग्रहण तो ध्यान को उस चिन्तानिरोवस्वभाव होरहेपन का प्रदर्शन करने के लिये है । अर्थात् जैसे अशुद्ध द्रव्य होरही स्थल पृथ्वी पर्याय के विशेष विवर्त बनरहे घट मे घटशद्र प्रवर्तता है, इसी प्रकार ज्ञानस्वरूप चिन्ता की वृत्तिविशेष मे ध्यान शद को प्रवृत्ति है, विशेष अर्थ मे अव्यत्र होरही ज्ञान प्रवृत्ति को लक्षण नहीं बनाकर अन्य ज्ञानों की चिन्ताओं के निरोध को उद्देश्य दल मे डालकर ध्यान का लक्षण इष्ट किया है, तिस हो कारण यानी चिन्तनिरोध की प्रधानता होने से ध्यान को ज्ञान से विलक्षणपना है । अन्यथा यानी ध्यान को ज्ञानसे विलक्षण नहीं मान कर यदि दूसरे प्रकार से सर्वथा ज्ञान स्वरूप अभोष्ट कर लिया जायगा तो इस ज्ञानस्वरूप ध्यान के चिन्ता किस प्रकार नहीं होगी?ज्ञान तो अनेक चिन्तनायें करता रहेगा, अतः ध्यान मे चिन्ता ओं के निरोध पर विशेष लक्ष्य डाला गया है। ध्यानमित्यधिकृतस्वरूपनिर्देशार्थ । मुहूर्तवचनादहरादिनिवृत्तिस्तथाविवशक्त्यभावात् ।
___ इस सूत्र मे ध्यान यह पद लक्ष्यकोटि में पड़ा हुआ है। जो कि अधिकारप्राप्त छटे अभ्यंतरतप होरहे ध्यान के स्वरूप का निरूपण करने के लिये है। इस सूत्र मे भन्तर्मुहूर्त पद कहा गया है । मुहूर्तपद का कथन करदेने से दिन, सप्ताह, पक्ष, मास, वर्ष भादि कालों तक ध्यान जमे रहने की निवृत्ति कर दी जाती है, चार छः घन्टो तक या दो,चार दिन तक तिस प्रकार एकाग्र चिन्ता निरोध करते हुये एक हो ध्यान लगा रहने की शक्ति का जीवों के अभाव है। तीनों लोक, तीनों काल मे कोई जीव ऐसा नहीं है मोकि अन्तर्मुहूर्तसे अधिक कालतक एक ही ध्यान लगाये रहने की सामर्थ्य रखता हो।