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तत्त्वार्थश्लोक वार्तिकालंकारे
पराशर, जतुकर्णं, वाल्मिकि आदिके मन्तव्योंके भेदसे वैनयिकोंके बत्तीस प्रकार हैं । मिथ्यादर्शनका उपदेश देने से ये बन्धके त्रेसठ ऊपर तीनसौ यानी तीनसाँ सठि हेतु हो जाते हैं जो कि उपदेशापेक्ष मिथ्यादर्शन कारणका परिवार है । नैसर्गिक के असंख्य भेद न्यारे हैं । प्रारिणवधनिमित्तत्वादध मं हेतुत्वसिद्धेः | आगमप्रामाण्यात् प्राणिवधो धर्म हेतुरिति चेन्न तस्यागमत्वासिद्धेरनवस्थानात् । परमागमे प्रतिषिद्धत्वात्तदसिद्धिरिति चेन्न, अतिशयज्ञानाकरत्त्वात् । अन्यत्राप्यतिशयज्ञानदर्शनादिति चेन्न, अतएव तेषां सम्भवात् ।
यहां किसीका आक्षेप है कि बादरायण, वसु, जैमिनि आदिक दार्शनिक तो वेदोंमें विहित किये गये ज्योतिष्टोम, अग्निहोत्र, अश्वमेध आदि कर्मकाण्डों को मानते हैं । ऐसी दशामें उन वेदपाठियोंको अज्ञानी मिथ्यादृष्टि क्यों गिनाया गया है ? इस आक्षेपके उत्तर
ग्रन्थकार कहते हैं कि प्राणियोंके वधका निमित्त होनेसे श्रुतिविहित अजग्मेध, अश्वमेध आदिकके पोषक मतोंको अधर्मका हेतुपना सिद्ध है । अतः पापका हेतु हो रही हिंसा कदाचित् भी धर्मका साधन नहीं है यों उनकी आत्मापर महान् अज्ञान तमः पटल छा रहा है । यदि पूर्व मीमांसावाले जैमिनि इस प्रकार कहें कि ऋगवेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद ये अपौरुषेय आगम है वेदका कर्ता नहीं होनेसे अकृत्रिमवेदमे कर्ता पुरुषोंके रांगदेष, अज्ञान, मूलक प्रयुक्त हो जानेवाले अप्रामाण्यके कारणोंका अभाव है । अतः वेद आगमकी प्रमाणता से प्रेणियों का विधि विहित वध करना धर्मका हेतु है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो न कहना । क्योंकि उस हिंसा प्रतिपादक वेदको आगमपना असिद्ध है । जो सम्पूर्ण प्राणियोंके हितकी शिक्षा करमेने प्रवृत्त हो रहा है वही आगम है । हिंसा को पोष रहे वाक्य उसी प्रकार आगम नही है जैसे कि चोरी, डांका आदिके पोषक वचन आगम नहीं हो सकते हैं । एक बात यह भी है कि वेदके वचन कोई ठीक व्यवस्थित नहीं है । कहीं " न हिंस्याः सर्वाभूतानि, लिखा है अन्यत्र अश्वमेध, अजमेध, आदिको गाया है । एवं किन्ही श्रुतियोंसे सर्वज्ञताको पुष्टि होती है, उन वाक्यों को अर्थवाद माननेवाले मीमांसक पण्डित किसीको सर्वज्ञ मानते ही नहीं हैं तथा कचित् अद्वैतको पुष्ट किया जाता है अन्यत्र द्वैत प्रक्रियाकी भरमार है यों कोई निर्णीत अवस्था नहीं होनेसे वेद आगमको प्रमाण नहीं कहा जा सकता है । सबसे प्रधान बात यह है कि तीन लोक में तीन काल में सम्पूर्ण प्राणियोंके हित का उपदेश दे रहे श्री अरहन्त भगवान् करके बढ़िया कहे गये परमोत्कृष्ट जिनागममें प्राणिवधका प्रतिषेध किया गया है। अहिंसा ही परमधर्म है अतः प्राणियोंका वध धर्म का हेतु कथमपि नहीं है । यदि यहां कोई यों कुचोद्य उठावे कि श्री अरहन्त भगवान के कहे गये प्रवचनका परमागमपना असिद्ध हैं मीमांसक मान बैठे हैं कि पुरुषोंकी कृतियां कचित् कदाचित् विसंवादवाली हो ही जाती हैं