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अष्टमोऽध्यायः
तो छठे अध्यायमें कहीं जा चुकी । पच्चीस क्रियाओमें अन्तर्भूत हो गया है। अतः उसका लक्षण वहां देख लेना चाहिये, “ कुचैत्यादि प्रतिष्ठादिर्या मिथ्यात्वप्रवद्धिनी, सा मिथ्यात्वक्रिया बोध्या मिथ्यात्वोदयसंश्रिता" इस वात्तिकमें मिथ्यादर्शन क्रिया का लक्षण कहा जा चुका हैं। विरति का प्रतिपक्ष हो रही अविरति भी सूचित कर दी गई है। यानी हिंसानृतस्तेयाब्रह्म परिग्रहेभ्यो विरतिव्रतं " इस सूत्रमें व्रतके प्रतिपक्ष अनुसार अविरति कह दी गई है और इन्द्रियकषायाव्रत, इत्यादि सूत्रमें अव्रतोंके निरूपण द्वारा अविरतिको ध्वनित कर दिया है । पच्चीस क्रियाओंमें कहीं गई आज्ञाव्यापादन और अनाकांक्षा इन दो क्रियाओंमें प्रमाद का अन्तर्भाव हो जाता है क्रोध आदि कषायोंको भी इन्द्रियकषायाव्रत, इत्यादि सूत्रमें ही भले प्रकार कह दिया है, अवलम्ब हो रहे काय आदि विकल्पोंवाले योगोंको " कायवाङमनः कर्मयोगः" इस सूत्रमें संपूर्ण रूपसे बढिया नियत कर दिया है। यों बन्धके कारणोंको एक प्रकारसे कहा हो जा चुका है। आस्रवतत्त्व बंधका कथंचित् हेतु ही है ।
मिथ्यादर्शनं द्वधा नैसगिकपरोपदेशनिमित्तभेदात् । तत्रोपदेशनिरपेक्ष नेसगिकं, परोपदेशनिमित्तं चतुर्विधं क्रियाक्रियावाद्याज्ञानिकवनयिकमतविकल्पात् । चतुरशीति क्रियावादा इति को कुल्यकण्ठविद्धिप्रतिमतविकल्पात् । अशीतिशतप्रक्रियावादानां मरीचिकुमारोलूककपिलादिवर्शनभेदात् । आज्ञानिकवादाः सप्तषष्ठिसंख्याः साकल्यवाकल्य प्रभृतिदृष्टिभेदात् । वैनयिकानां द्वात्रिंशत् वशिष्टपराशरादिमतभेदात्, एते मिथ्यादर्शनो पदेशास्त्रीणि शतानि त्रिषष्ठयुत्तराणि बंधहेतवः ।
सम्यग्दर्शनके समान मिथ्यादर्शन भी निसर्गसे जायमान नैसर्गिक और परोपदेशको निमित्त मानकर हुआ अधिगमज इन भेदोंसे दो प्रकार है। उन दोमें परोपदेशकी नहीं अपेक्षा कर केवल मिथ्यात्व कर्मके उदयसे अथवा मिथ्यात्व कर्मका उदय होते हुये अन्य कारणोंसे जो उपज जाता है वह नैसर्गिक मिथ्यादर्शन है। परोपदेशोंको निमित्त मानकर हुआ मिथ्यादर्शन तो क्रियायादी, अक्रियावादी, आज्ञानिक और वनयिक, मतोंके विकल्पसे चार प्रकारका है। पदार्थों में देशसे देशान्तर हो जाना रूप क्रियाको मान रहे क्रियावादी दार्शनिकोंके कौक्कल, काण्डेविद्धि, या कौत्कुल्य, कण्ठेविद्धि आदिक मतोंके विकल्प से क्रियावाद चौरासी प्रकार हैं। तथा पदार्थों में क्रियाको नहीं माननेवाले मरीचिकुमार, उलूक, कपिल गार्ग्य, व्याभूति आदि अक्रियावादियोंके दर्शनोंके भेदसे अक्रियावाद एक सौ अस्सी प्रकार का है। एवं साकल्य, वाकल्य, बादरायण, बसु, जैमिनि, माध्यन्दिन, पप्पलाद इत्यादिके दर्शनोंके भेदोंसे अज्ञानसे प्रयुक्त हुये आज्ञानिक वादोंकी सदसठि संख्या है। तथैव वशिष्ठ