________________
२६२)
तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
नाशोत्पादयोस्तया प्रसिद्धिरिति चेत्, तांतर्मुहूर्तमात्रस्थायितयोत्पत्तिरेव तदुत्तरकालतया विनाश इति समः समाधिः।
बौद्ध कह रहे हैं कि इस प्रकार उत्पाद और विनाश के मान लेने पर क्षणिक हो रहे स्वलक्षण या विज्ञानस्वरूप वस्तु के नाश और उत्पाद एक ही सम काल मे नहीं हो जायेंगे, जिससे कि विरोध दोष खड़ा कर दिया जाय. कारण कि पहिले क्षण में होने वाला उत्पाद है और उस प्रथमक्षण स्थायी वस्तु का विनाश तो दूसरे क्षण मे होने वाला है, पहले क्षण मे वर्तरहा वस्तु उपादान कारण है और द्वितीय क्षणवर्ती स्वलक्षण कार्य है । जब कि कारण ( समवायिकारण ) का विनाश स्वरूप ही कार्य का उत्पाद है, जैनों के यहां भी "कार्योसादः क्षयो हेतोनियमात् लक्षणात् पृथक् " (देवागमस्तोत्र) पूर्वपर्याय के नाश और उत्तरपर्याय के उत्पाद का समय एक ही माना गया है। " नाशोत्पादौ समं यद्वत्रामोन्नामो तुलान्तयोः" जैसे समान डोरी के पलडों को चार रहो तराजू के अन्तवर्ती एक भाग में निचाई होने पर उसी समय झट दूसरे भाग उंचाई हो जाती है। एक ओर नोचा और दूसरी ओर ऊचा हो जाने का समय एक ही है । इसी प्रकार नाश और उत्पाद का एक ही समय है।
आचार्य कहते हैं कि जैन सिद्धान्तमे दोक्षित हो चुके मानू बौद्ध यदि यों कहेंगें तब तो हम कहते हैं कि आप ही के आक्षेप अनुसार प्राप्त हो गये इस प्रकरण प्राप्त चोद्य का परिहार किस प्रकार कर सकोगे ? बताओ। यों तो जैनसिद्धान्त अनुसार उत्पाद, व्यय को मान लेने पर कथंचित् ध्रौव्यपना भी ध्वनित हो जाता है, बौद्धों के ऊपर उठाये गये कूटस्थ अर्थ के सिद्ध हो जाने का आपादान तदवस्थ हो रहा।
___ यदि बौद्ध पुनः यों कहे कि एक क्षणमात्र स्थिति रहने स्वभाव रूपसे उपज जाना ही दूसरे क्षण मे विनाश हो जाना है, यों अन्य समय (द्वितीय समयमें) अन्य (द्वितीय क्षणवर्ती स्वलक्षण) का उत्पाद हो जाना अन्य (प्रथमक्षणवर्ती स्वलक्षण) का विनाश नहीं है, क्योंकि तिसप्रकार तराजू के समान नाश और उत्पादकी एक समय में ही हो जाने की प्रसिद्धि हैं, "सव्येतरगोविषाणवत्" बैल के दायां और बायां सींग दोनों एक ही समय में उपजते हैं। सुगतमत अनुयायियों के यों कहनेपर हम जिनपतिशासन के अनुयायी कहते हैं कि तब तो केवल अन्तर्मुहूर्त कालतक स्थायीपने करके ध्यान की उसज जाना ही उम अन्तर्मुहुर्त काल से अव्यवहित उत्तरवर्ती काल में