________________
नवमोध्यायः
२६१)
का सद्भाव है, बौद्धों का घातक शस्त्र कुपिशाच या कृत्त्यादेवी के उस्थित कर देने के समान उन्हीं के ऊपर गिरता है नित्यपन या कालान्तरस्थायीपन को पुष्टि मिलती हैं, जिसका कि बौद्ध नखंशिखतक पसीना बहाकर खन्डन करना चाहते हैं ।
་!
.
स्यादाकूतं क्षणिकवादिनां क्षणादूर्ध्वं प्रच्युतिद्वितीयक्ष णस्थितिकत्वेनोत्पत्तिः ततो नोत्पत्ति विपत्तिरहितं तत्संततमनुषज्यते यतः क्षणिकत्व सिद्धिर्वाप्रतिहता न स्यादिति । तदसत्, तथान्तर्मुहूर्त स्थि तिकत्वस्यापि सद्धेः सर्वथा विशेषाभावात् ।
संभवतः क्षणिकवादी बौद्धों का यह साभिप्राय चेष्टित हावे कि क्षणिक की ही पक्ष को कहने वाले हम बौद्धों के यहां पहिला पर्याय का क्षरण से ऊपर विनाश हो जानी ही दूसरी पर्याय का द्वितीय क्षण में स्थिति हो जाने रूप करके उपज जाना हैं, यों उत्पाद, व्यय और धौव्य घटित हो जाते हैं, आप जैनों के यहाँ भी ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा से उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यों की रक्षा इस ही प्रकार की गयी हैं, तिस कारण उत्पत्ति और विनाश से रहित हो रहा सन्ता वह क्षणिक स्वलक्षण पदार्थ सतत ( सर्वदा ) अवस्थित रहना यह प्रसंग उठाया जाता और जिससे क्षणिकपने की सिद्धि निर्बाध नहीं होती । अर्थात् क्षणस्थितिशील पदार्थ सभी उत्पत्ति और विपत्ति से सहित हैं, वे एक क्षरण ही ठहरते हैं, कोई पदार्थ नित्य नहीं है, फिर पदार्थों की सकल क्षरणों मे व्यापा रो स्थिति का प्रसंग हमारे ऊपर क्यों उठाया जा रहा है ?
=
आचार्य कहते हैं कि वह बौद्धों का कहना प्रशंसनीय नहीं है, क्योंकि तिस ही प्रकार ध्यानके अन्तर्मुहूर्त तक स्थित बने रहने की भी सिद्धि हो जाती है, सभी प्रका से कोई विशेषता नहीं है, जैसे आप क्षणिक पदार्थ की क्षरणकाल से ऊपर मृत्यु होजाना - ही अन्य स्वलक्षण की दूसरे क्षरण मे ही स्थिति होनेपनेसे उत्पत्ति, मानते हैं, उसी प्रकार प्रकरणप्राप्त अन्तर्मुहूर्त से ऊपर विवक्षित ध्यान का नाश हो जाना ही अन्य ध्यान का दूसरे अन्तर्मुहुर्त तक ही स्थित रहनेपने करके उत्पाद है, यों जैन सिद्धान्त के अनुकूल उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यों की व्यवस्था को यदि आप मान रहे हैं, तब तो हमारा अभीष्ट मनोरथ सिद्ध हो जाता है ।
न चैवं क्षणिकत्ववस्तुनो नाशोत्पादौ समं स्यातां प्रथमक्षणभावित्वादुत्पादस्य, द्वितीयक्षणभावित्वात्तद्विनाशस्य । कार्योत्पादस्य कारणविनाशात्मकत्वात् सममेव नाशोत्पादौ तुलान्तयोर्नामोन्नामवदिति चेत्, कथं प्रकृतचोद्यपरिहारः । एकक्षणस्थास्नुतयो - त्पाद एव द्वितीयक्षणे विनाश इति नान्यदान्यस्योत्पत्तिरन्यस्य विनाशः । सममेव
?