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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
कूटस्थपन की सिद्धि हो जाय अर्थात् अन्तर्मुहूतं तक ठहरकर वह ध्यान अवश्य नष्ट हो जायगा, यों प्रत्येक अन्तमहूर्त में नाना ज्ञानों के अन्तराल पडते रहेंगे, वर्षों या अनंत काल तक एक ही ध्यान बने रहने का दोष हम जैनों के ऊपर नहीं लागू होगा, ध्यान हो क्या, किसी भी पदार्थ का कूटस्थ नित्य हो जाना हम स्वीकार नहीं करते है ।
___ कथमन्यदान्यस्योत्पत्तिरतर्मुहूर्तस्थास्नोः प्रच्युतिरतिप्रसंगात् इति चेत्, कथमे कक्षणप्रच्युतिः क्षणान्तरस्थितिकत्वेनोत्पत्तिरन्यस्य स्यादिति समः पर्यनुयोगः सर्वथातिप्रसंगस्य समानत्वात्। तथा च न क्वचिदुत्पत्तिः क्षणार्थानां सिद्धयेत् विनाशोपि नानुत्पन्नस्य भावस्येति नित्यवादिनां कूटस्थार्थसिद्धि रबाधिता स्यात् क्षणिकत्व एव बाधकसद्भावात् ।
बौद्ध पुनः आक्षेप करते हैं कि अन्य समय मे यानी दूसरे अन्तर्मुहूर्त में अन्य ध्यान यानीं दूसरे ध्यान का उपज जाना भला अन्तर्मुहूर्ततक स्थितिस्वभाववाले पहिले ध्यान का नाश हो जाना कसे माना जा सकता हैं ? अपने घर का स्थित रहना क्या दूसरे घर का विनाश कहलावेगा ? कभी नहीं।
यों कुचोद्य करने पर तो ग्रन्थकार कहते है कि तुम बौद्धों के यहां भी यही प्रश्न लागू हो सकता है। सुनिये कि दूसरे अन्य ज्ञान का अन्य दूसरे क्षण मे ही स्थितिसहितपने करके उपज जाना ही भला पहिले ज्ञान का एक क्षण पीछे ही झट ध्वंस हो जाना किस प्रकार हो सकेगा ? बताओ। इस प्रकार सकटाक्ष व्यर्थ के प्रश्न उठाना स्वरूपपर्यनुयोग तुम्हारे ऊपर भी समान रूपसे लागू है, दूसरों को दूषण देना या निग्रहप्राप्त कर देने की इच्छा रखने वाले एकाक्ष को अपने ही ऊपर स्वयं दोषों के . पड जाने का लक्ष्य रखना चाहिये, विप्रतिषेध या सहानवस्थान विरोध के प्रकरण में दूसरे का उपजना पहिले के विनश जाने से अविनाभावी कहा गया है, अतः जैनों के ऊपर बौद्ध मतिप्रसंग दोष उठावेंगे, उसी ढंगसे अतिप्रसंग दोष सभी प्रकारों से बौद्धों के ऊपर भी समानरूपेण लग बैठता है । बौद्ध जैसा उसका निराकरण करेंगे वैसा ही निवारण हमारी ओर से भी समझा जाय, क्षणस्थिति और अन्तर्मुहूर्त स्थिति के प्रश्नोतर दोनों ओर से समान है, प्रत्युत तिस प्रकार अन्वयरहित कोरी क्षणिकता मानने पर बौद्धों के यहां क्षणिक पदार्थों का किसी भी समय में उपजना सिद्ध नहीं हो सकेगा, जो पदार्थ उत्पन्न ही नहीं हुआ है, उसका विनाश हो जाना भी नहीं सिद्ध हो सकेगा, यों उत्पाद और विनाश से रहित पदार्थों के नित्यपन को बक रहे, वादियों के यहां कूटस्थ अर्थ की सिद्धो निर्वाध हो जावेगी, बौद्धों के क्षणिकत्व पक्ष में ही अनेक बाधक प्रमाणों