________________
नवमोऽध्यायः
२५९)
अर्यकक्षणस्थितिकत्वे नो पत्तिरेव क्षणास्थायिनः प्रच्युतिरतो न सदावास्थितिः। तांतमहतं स्थितिक-ध्यानवादिनामन्तमहर्तादुत्तरकालं समयादिस्थितिकत्वेनोत्पत्तिरेवा नंतर्मुहूर्तस्थायिनः प्रच्युतिरन्तर्मुहर्तस्यास्नुतयात्मलाभ एवोत्पत्तिरिति नाविच्छेदशक्तेः सततावस्थितिप्रसंगो यतः कौटस्थ्यसिद्धिः।
___ इसके अनन्तर बौद्ध यदि यों कहना प्रारम्भ करें कि एक क्षण मात्र ठहरने की टेव रखनेवाले क्षणस्थायी पदार्थ की एक क्षण मात्र में हो जिसको स्थिती होय, इस स्वरूपसे उपजना ही तो द्वितीय क्षण मे नहीं ठहरनेवाले का विनश जाना है, यानी प्रथम क्षण की उत्पत्ति हो द्वितीय क्षण में ध्वंस हो जाना स्वरूप है, जो भी कोई पदार्थ उपजेगा द्वितीय क्षण मे अपनी होनहार मृत्यु को साथ लेकर हो उपजेगा, स्वचतुष्टय की अपेक्षा उपज रहे अस्तित्व के साथ परचतुष्टय अपेक्षा नास्तित्व का साथ लगा रहना जैनोंने भी अभीष्ट किया है, पूर्व पर्याय का ध्वंस और उतरक्ष गवर्ती पर्याय के उत्पाद हो जाने का एक ही समय है, इस कारण हम बौद्धों के यहां पदार्थों की सदा अवस्थिति बने रहने का दोष नहीं लग पायेगा, जोकि जैनोंने हमारे कार तान के तोर समान मारा था, एक क्षण के पीछे विच्छेद पड़ता चला जायगा।
आचार्य कहते हैं कि तब तो जिस ध्यान को अन्तर्मुहुर्त स्थिति है ऐसे ध्यान के काल की पक्ष को ग्रहण कर रहे जैन विद्वान वादियों के यहां भी यही समाधान लागू हो जायगा । पहिला ध्यान अन्तर्मुहूर्त तक ठहरेगा, दूसरा ध्यान आवली कालसे ऊपर एक समय, दो समय, आदि असंख्याते समयों तक स्थिति को लेकर के अन्तर्मुहुर्त तक उपज जावेगा। जघन्ययुकासंख्यात प्रमाण समयों की एक आवली है, संख्याती आवलियोंका एक अन्तर्मुहूर्त होता है, एक समय अधिक आवलो भो अन्तर्मुहूर्त मे गिनी गयी है। यों एक समय, दो समय आदि की स्थिति सहितपने करके अन्तर्मुहर्त तक ध्यान का उपज जाना ही अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं ठहरने वाले ध्यान का ध्वंस हो जाना है तथा 'अन्तर्मुहूर्त तक स्थितिशील होकर के ध्यान का आत्मलाभ हो जाना ही ध्यान की उत्सत्ति है, जो ध्यान अन्तर्मुहूर्त की आयु लेकर ही उपजा है,अन्तर्मुहूर्त के पीछे सयय में उसकी मृत्यु हो जाना अनिवार्य है।
__ इस प्रकार नहीं विच्छेद होने की शक्ति के सर्वदा अवस्थित बने रहने का प्रसंग नहीं आता है । जिससे कि ध्यान के या अन्य घट, पट आदि पर्यायों के वित्य