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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
करनेवाला या चञ्चल याख्याता जो एक समय मे मुखसंचालन, भकुटी मटकाना, हाथ. पांव चलाना यों अनेक प्रयत्न कर रहा है । वह सब मनके शीघ्र सचार अनुसार क्रमसे हो होते हैं। ऐसा करणादः अनुयायी मान रहे हैं। किन्तु जैनसिद्धान्त अनुसार ज्ञानमे मनको आवश्यकता नहीं हैं। एकेन्द्रिय जीवसे लेकर असंज्ञो पचेन्द्रियत क जीवोंके ज्ञानमे पन का योग नहो है । क्योंकि उनके मन हो नही हैं। तव तो " आत्मेन्द्रियार्थसन्निकर्षे ज्ञानस्य भावोऽभावश्च मनसो. लिंगम् " यह वैशेषिकोंका मन्तव्य युक्तिपूर्ण नहीं है। तथैव एक मनोयोग द्वारा या वचनयोग द्वारा एक हों समयमे कतिपय प्रयत्न हो रहे देखे जाते है । गोह, साँप, छपकली आदि के अवयव कट जाने पर या अन्य जीवोंके बोलते हूये, विचार कर चलनेपर, कई प्रयत्न हो रहे हैं। हा ज्ञान एक साथ कई कतिपय नहीं हो सकते है । " एकस्मिन् न द्वौ उपयोगौ " (. अष्टसहस्री ) एक समय मे दो उपयोग नही हो सकते हैं,लब्धियाँ चार तक भले ही हो जाय"एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्म्यः " यह सूत्र लब्धियों के संभव जाने की अपेक्षासे है। . . . .
एतेन प्राणायामधारणयोरध्यानकारणत्वमुक्तं प्रत्याहारक्त । यमनियम योस्तु तदंगत्वमिष्टमेव । असंयतस्य योगाप्रसिद्धः। .........
इस पर्वोक्त कथन करके प्राणायाम और धारणाको भी ध्यान का कारण पना नहीं है । यह कहा गया समझो, जैसे कि प्रत्याहार को ध्यान का कारणपना नहीं हैं भावार्थ-योगदर्शनमे "यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारवारणाध्यानसमाधयोऽष्टावग्डानि" साधनपाद का उनतीसवां सूत्र हैं। यम नियम, आसन, प्राणयाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि ये योगके आठ अंग माने हैं। अहिंसासत्यास्तेय ब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः (३० वाँ सूत्र ) अहिंसा, सत्य, अचौर्य ब्रह्मचर्य और परिग्रहत्याग ये पांच यम है " शौच संतोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः" ( समाधिपाद बत्तीस वा सूत्र ) वाह्य, अभ्यन्तर शौच रखना, संतोषवृत्तिः, तपश्चरण, स्वाध्यायकरना, फल की इच्छा छोड़ कर ईश्वर मे चित्त लगाना ये पोच नियम है " स्थिरसुखमासनम् " ( ४६ वां सूत्र ) स्थिर और सुखदायी सिद्धासन, भद्रासन, वीरासन, पद्मासन, स्वस्तिकासन आदि योगके आसन है । " तस्मिन्सति श्वासप्रश्वासयोगति विच्छेदः प्राणायामः" (साधनपाद उनञ्चासवां सूत्र ) बाहर की वायु का भीतर जाना श्वास है और भीतर की वायु का बाहर निकालना प्रश्वास है । उस